श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा पीठ मंदिर उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में ऋषिकेश के राम झूला से आगे श्री नीलकंठ महादेव मंदिर से 4 किलोमीटर दूर 5500 मीटर की ऊंचाई पर मणिकूट पर्वत के उत्तुंग शिखर पर स्थित है ।
मणिकूट पर्वत के शिखर पर मात्र 40×60 फिट क्षेत्र के चबूतरे पर स्थित यह स्थान धर्म, आध्यात्म, साधना व प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के साथ-साथ अनेकों रहस्यों व उपलब्धियों को अपने आप में समेटे हुए है ।
श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा पीठ का पुराणों में सिद्ध कोट, सिद्धों का कोट, व सिद्धकूट के नाम से वर्णन किया गया है तथा स्थानीय भाषा में “मणिकूट कोठामा” के नाम से जाना जाता है, जो कि सप्तऋषियों के तपस्थल के रूप में सात शिलाओं, माता सती अनुसूया की भक्ति के रूप में गंगोदक तीर्थ कुंड, चौरासी सिद्धों के तपस्थल के रूप में अमृतोदक कुंड, देवताओं के तेज से उत्पन्न अजन्मी माँ दुर्गा के रूप में अदृश्य किन्तु शुक्ष्मता से अनुभव हो जाने वाले उर्जा के प्रवाह, व आदिदेव महादेव भगवान शिव के रूप में श्री ज्योतिर्मणि महादेव नामक शिवलिंग को प्रत्यक्ष में धारण किये हुए है ।
श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा पीठ के पुनर्स्थापक ओर श्री ज्योतिर्मणि पीठ के संस्थापक श्री नीलकंठ गिरी जी महाराज का साधना व तपस्थल भी यही है ।
पुराणोक्त कथा के अनुसार ‘कालकूट’ नामक विष को भगवान शिव अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ कहलाये और उस विष के प्रभाव को शांत करने के निमित्त मणिकूट पर्वत की घाटी में मणिभद्रा व चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित बरगद की छांव तले पुर्णतः एकांत समाधिस्थ हो गए थे . तदुपरांत वहां पर साठ हजार वर्ष पर्यन्त समाधिस्थ रहने के बाद कंठस्थ विष का प्रभाव शांत होने पर भगवान शिव कैलाश प्रस्थान करने से पूर्व मणिकूट पर्वत के उत्तुंग शिखर पर आये थे जहाँ पर सभी देवी देवताओं ने समस्त जीवात्माओं के रक्षक भगवान शिव की अनेक प्रकार पूजा अर्चना व अनेकों अलंकारों से सुशोभित कर प्रार्थना की थी, तब भगवान शिव इस स्थान पर अनेकों अलंकारों से युक्त “श्री ज्योतिर्मणि” नामक स्वयंभूः शिवलिंग के रूप में विराजमान हो गए थे, इस शिवलिंग पर प्राकृतिक रूप से निर्मित यज्ञोपवीत सहित अनेकों अलंकारों को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है ।