यह तो सर्व विदित है कि श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्रदायिनी एक मात्र साधना है ! किन्तु लोक लोकान्तर व मत मतान्तर में इस साधना को लेकर बहुत अधिक ही भ्रम व्याप्त है, अनुमानतः सभी धर्म व सम्प्रदायों में कुछ प्राणी ऐसे हुआ करते हैं जिनको किसी विषय में कुछ ज्ञान हो या न हो, उस विषय का कभी अध्ययन किया हो अथवा न किया हो, उस विषय का कभी अनुभव किया हो अथवा न किया हो, किन्तु फिर भी उस विषय पर अपनी विशेषज्ञता का एकाधिकार अवश्य ही रखते हैं !
और हम भी इसी श्रेणी में आते हैं, क्योंकि श्रृष्टि के आदि से लेकर वर्तमान तक कोई भी शोध न तो अन्तिम है, और न ही भविष्य में भी कुछ करोड़ वर्षों तक अंतिम हो सकेगा, इसलिए हम इन विशेषज्ञता का एकाधिकार रखने वाले महापुरुषों व सिद्धगुरुओं के महापुरुषत्व व सिद्धगुरुत्व के भीतर से धर्म के नाम पर धर्मभीरु जनमानस की भावनाओं, धन व जीवन को अपनी विलासिता में व्यय, संस्कार घात, शास्त्रघात और धर्मघात जैसे गम्भीर रोगों के अब असाध्य रोग बन जाने की जानकारी एक ऐसे समाज के सामने रख रहे हैं जो स्वयं विवेक से अँधा है !
यदा कदा यह देखा व सुना जाता है कि कुछ महापुरुष श्रीविद्या की दीक्षा के नाम पर पंचदशाक्षरी (पंचदशी), व षोडशी महाविद्या के त्रयाक्षरी मन्त्र की दीक्षा देते हैं, कुछ महापुरुष अपने शिष्यों को भोग साधना (क्रमदीक्षानुसार) श्रीविद्या के द्वितीय चरण (अर्थ) अथवा तृतीय चरण (काम) की महाविद्याओं की दीक्षा देकर अपने शिष्यों को श्रीविद्या के चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हो जाने का सत्य, धर्म ओर सिद्धांत के सिर पर बैठकर डंका बजाते हैं, और उनके अनपढ़ से लेकर पढ़े लिखे, विद्वान, अधिकारी वर्ग तक के शिष्यगण, और कुछ उनके व्यवसायिक प्रचारक गण उस डंके की थाप पर सत्य, धर्म ओर सिद्धांत की छाती पर चढ़कर जी भरकर नाचते और नचाते हैं !!!
जिस कारण से आजकल अनेक स्थानों पर अनेक बार धर्म के ठेकेदारों के छत्र के नीचे घायल हुए बेचारे सत्य, धर्म ओर सिद्धांत अपना सिर और छाती पकड़कर रोते हुए पाए जाते हैं, और समाज के जिन लोगों को सत्य, धर्म ओर सिद्धांत के प्रति सहानुभूति है वो बेचारे धर्म और राजनीती के ठेकेदारों के डर से इन तीनों का दुखड़ा सुनने से भी डरते हैं !
यह सोचकर आश्चर्य होता है कि ये आधुनिक महापुरुषों ने प्रकृति, सिद्धान्त ओर नियम से हटकर यह कोन से नए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने की पद्धति विकसित की है जो पराम्बा के नियम के समान ही प्रभावी हो ? फिर सोचते हैं कि यह पद्धति सही है तभी तो सनातन धर्मी मनुष्य अब इस पृथ्वी पर कम ही बचे हैं, क्योंकि कुछ को तो इन गुरुओं ने इन पद्धतियों से मोक्ष दे दिया, और कुछ इनकी बनाई हुई नई-नई अनर्गल पद्धतियों से साधनाएं करते करते हार थक कर एक किनारे हो गए, और जो थोड़े बहुत बचे हैं वो सब भी जल्दी ही या तो इनकी बनाई हुई अनर्गल पद्धतियों से मोक्ष प्राप्त करेंगे या फिर एक किनारे पर बैठे हुए पता नहीं क्या करेंगे ???
एक सामान्य व्यक्ति थोड़े से धन, ख्याति, बल, सत्ता व प्रभाव को पाकर थोड़ा सा ही धनाढ्य होने से पहले के संस्कार, नैतिकता, भक्ति व मानवता को भुला देता है, जिसको हर गरीब, संत, फ़क़ीर में परमात्मा दीखता था, जिसके घर में प्रतिदिन परमात्मा का स्मरण और संत, फ़क़ीरों का सेवा भाव होता था, थोड़ा सा धनाढ्य होते ही उसके नए घर के नक़्शे से सबसे पहले पूजा स्थान ओर संत, फ़क़ीरों के आने व बैठने का स्थान व धनाढ्य होने से पहले के संस्कार, नैतिकता, भक्ति, धर्म व मानवता ही गायब हो जाता है ! ओर यहाँ आजकल के शासन सत्ताधारियों की तो बात ही निराली है क्योंकि इनका तो प्रारम्भ ही संस्कार, नैतिकता, भक्ति, धर्म, मानवता, दया व न्याय को तिलांजलि देकर होता है, जहाँ ये अपने वर्चश्व को बनाए रखने के निमित्त धर्म तो क्या अपनी मानवता की ही सभी सीमाओं को पार किये रहते हैं !
तो फिर पराशक्ति साधना के द्वारा धर्म की अनुपस्थिति में केवल इन दोनों पुरुषार्थों अर्थ या काम से प्राप्त अतिशय धन व शासन सत्ता के मद में रहकर होने वाले कर्मो से तो इनका पहले का किया हुआ भी कुछ धर्म कर्म नहीं बचने वाला है, फिर इन भौतिकवादी महागुरुओं के शिष्यगण धर्मरहित अतिशय भोग, धन व शासन सत्ता के मद में रहकर जो कृत्य अकृत्य करते हैं उन कर्मो के फल को भोगने के लिए ये महापुरुष अपने शिष्यों के प्रतिरूप (Clone) बनाते हैं या उनके शिष्यों के पड़ोसी या पूर्वज यह दायित्व निभाते हैं ??? धर्म को साधे बिना ओर धर्म को आत्मसात किये बिना इन गुरु चेलों के लिए “धर्म और मोक्ष” क्या बाबा कालीकमली वाले के अन्नक्षेत्र के भण्डारे में बंट रहा है ???
जबकि श्रीविद्या, ब्रह्मविद्या और मोक्ष इन तीनों का सूत्र, सिद्धान्त व मार्ग यह एक ही है कि :- सर्वप्रथम पुर्णतः धर्म में स्थित होकर धर्ममय उद्यम द्वारा धर्म युक्त अर्थ की प्राप्ति कर, धर्ममय रहकर ही धर्म युक्त अर्थ से समस्त काम भोगों को प्राप्त कर निवृत्ति (मोक्ष) को प्राप्त करना ! और यदि धर्म के बिना मोक्ष प्राप्ति का बहकावा अच्छा लगता है तो हिरण्याक्ष, महिषासुर जैसे दैत्यों ने भी मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का ऐसा ही मूर्खतापूर्ण स्वपन देखा था, अथवा उनके गुरु ने भी ऐसा ही मूर्खतापूर्ण स्वपन देखने और मूर्खतापूर्ण वरदान लेने की उनको सलाह दी होगी !
ऐसे महापुरुषों को चाहिए कि वह अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को ध्यान में रखते हुए पहले अपने गुरु से स्वयं “षोडशाक्षरी विद्या” को विधिवत धारण करके उसकी साधना संपन्न करनी चाहिए तदुपरांत अपने शिष्य समूह को यह परम श्रेष्ठ विद्या प्रदान करनी चाहिए, अन्यथा अपनी अपरिपक्वता, प्रतिद्वंदी व आलोचक विध्वंसक तन्त्र के ज्ञान, ऐन्द्रजालिक चमत्कार, तथा भौतिक समृद्धि के मद में आकर अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को अपनी विलासिता में व्यय नहीं करना चाहिए !
और साथ ही अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने पूर्वाग्रही शिष्यों को भी दो टूक शब्दों की सीमा में रखना चाहिए कि “स्वयं कुछ बनना है तो मानवता की सीमा में रहकर धर्म, उद्यम, तप व कर्म करो, ओर खरीदना है तो बाजार में जाओ”, अन्यथा तन और धन से सेवा करने वाले शिष्यों के पूर्वाग्रह को शिरोधार्य कर उन शिष्यरुपी जीवों की चापलूसी करके उनको भी कर्मभ्रष्ट बना दोगे और अपने गुरुत्व को भी नहीं बचा पाओगे ! क्योंकि गुरु का धर्म शिष्य की चापलूसी करने का नहीं बल्कि शिष्य के हित के निमित्त उसको दिशा निर्देश देने का होता है, और यदि शिष्य अपने हित के गुरु निर्देश को न माने तो साम, दण्ड ओर परित्याग रूपी शस्त्रों का प्रयोग कर स्वयं सहित अपने अन्य शिष्यों के जीवन व भविष्य की उस पतित हुए शिष्य के प्रभाव से रक्षा कर लेनी चाहिए !
और इस स्थिति में मोक्ष तो बहुत दूर की बात है, पहले किसी कोने में छुपकर इन तथाकथित महागुरुओं व सिद्धगुरुओं से ही अपनी रक्षा करता हुआ “धर्म” ही मिल जाए,,, तो क्या ये कम रहेगा ???
जो विवेकवान साधक अपना कल्याण चाहते हैं वह कुलोपासना सम्पन्न कर सभी भोगों को भोग लेते हैं और पूर्ण निवृत हो मोक्ष को प्राप्त कर जाते हैं ! और जिनको सही मार्गदर्शन नहीं मिलता है अथवा जो सही मार्गदर्शन मिलने पर भी अहंकार की उपासना ही करना चाहते हैं वह साधक ऐसे ही भोग साधनाओं को प्राप्त कर उनके भोगों में अपने सत्कर्मों की तिलांजली कर बैठते हैं !!!
कोई कितना ही बड़ा साधक तपस्वी हो या ना हो यदि दया, धर्म ओर त्याग हमेशा उसके साथ में है तो भगवत ओर मोक्ष प्राप्ति उसके द्वार पर ही खड़ी है, ओर यदि उसके पास दया, धर्म ओर त्याग नहीं है तो भगवत ओर मोक्ष प्राप्ति का स्वपन देखना छोड़ देने भर से ही उसके मन व आत्मा को निश्चित ही असीमित शान्ति की प्राप्त होगी !
इसलिए कहाँ ब्रह्म है ? ओर कहाँ भ्रम है ? यह पता लगाना बहुत कठिन है ! बस सब अपनी अपनी कुलदेवी की ही आराधना कर लो तो तुम्हारे अपने कुल परिवार के लिए इतना ही पर्याप्त हो जायेगा, अन्यथा ये सन्यासी जैसा मेकअप किये हुए बहरूपिये तुम्हारे सिद्धगुरु ओर महागुरु बनकर “खुद सोने की नाव में बैठकर, तुमको बिना आग पानी के समुद्र में डुबोकर मारेंगे, और स्वयं ख्याती और दंभ की आग के समुद्र में जलते हुए मारे जाएंगे !!”
(किसी को इस लेख से आघात पहुंचा हो तो कृपया हमें क्षमा मत करना, बस आत्ममंथन करना कि आप भी ऐसा ही कोई स्वपन देख रहे हैं, या किसी को ऐसा स्वपन देखने की सलाह दे रहे हैं ???)
(कृपया ध्यान दें :- इस पृष्ठ पर लिखा गया उपरोक्त विवरण श्री नीलकण्ठ गिरी जी महाराज द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश है जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है, अतः कोई भी संस्था, संस्थान, प्रकाशक, लेखक या व्यक्ति इस लेख का कोई भी अंश अपने नाम से छापने या प्रचारित करने से पूर्व इस लेख में छुपा लिए गए अनेक तथ्यों के लिए शास्त्रार्थ व संवैधानिक कार्यवाही के लिए तैयार रहना सुनिश्चित करें !)