भगवती षोडशी मूलप्रकृति शक्ति की सबसे मनोहर बालस्वरुपा श्री विग्रह वाली देवी हैं । उदय कालीन सूर्य के समान जिनकी कान्ति है, चतुर्भुजी, त्रिनेत्री, वर, अभय, ज्ञान व तप की मुद्रा को धारण किये हुए हैं । ये सहज व शांत मुद्रा में कमल के आसन पर “क”कार की मुद्रा में विराजमान होती हैं । जो जीव इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है । ललिता, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी, बाला, आदि इनकी ही विकसित अवस्थाओं नाम हैं ।
भगवती षोडशी श्यामा और अरूण वर्ण के भेद से दो कही गयी है प्रथम श्यामा रूप में श्री दक्षिणकालिका कहलाती हैं तथा द्वितीय अरूण वर्णा श्री षोडशी कहलाती हैं ।
चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्रा भी कहा जाता है । इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं, इसलिए ये षोडशी कहलाती हैं ।
भगवती षोडशी इस सृष्टि के सर्वोच्च आध्यात्म साधना विधान “श्रीविद्या” समूह के अधीन प्रथम पुरुषार्थ “धर्म” की कुल भेद के अनुसार चार अधिष्ठात्रियों में से एक देवी हैं, व अखिल ब्रह्माण्ड के द्योतक श्रीचक्र में इनका निवास माना जाता है, जिस कारण इनको श्रीविद्या की देवी व श्रीचक्रराज निलया के रूप में भी जाना जाता है ! और इसी भ्रम अथवा अल्पज्ञता के कारण कुछ “तथाकथित/अल्पज्ञ/स्वयंभूः व आधुनिक हाईप्रोफाइल धर्माचार्य/गुरु/बुद्धिजीवी/साहित्यकार व साधक” षोडशी महाविद्या साधना को “श्रीविद्या” साधना के नाम से जानते व प्रचारित करते हैं, जिस कारण से यह अति गहन व गुह्य साधनाएं भ्रम व अज्ञानता की गहराई में लुप्त होती जा रही हैं !
इनकी साधना (अर्थात जप, तप, आत्मसंधान, यज्ञ आदि के द्वारा परा या अपरा अवस्था में स्वयं को इनकी शक्ति में अथवा इनकी शक्ति को स्वयं में विलय करने की प्रक्रिया) प्रमुख रूप में निम्नलिखित दो प्रकार से की जाती है :-
1 महाविद्या साधना विधान :- षोडशी महाविद्या के रूप में एकाक्षरी, त्र्याक्षरी, आदि व कुछ “आधुनिक/तथाकथित धर्माचार्यों/गुरुओं” के मतानुसार पंचदशाक्षरी मन्त्रों से इनकी साधना की जाती है, महाविद्या रूप में इनकी साधना को संपन्न करने से इस साधना के परिणाम स्वरूप भगवती षोडशी अपने महाविद्या साधक के जीवन के समस्त आन्तरिक व वाह्य पाप, ताप, दोष, अनीति व अधर्म की समस्त अवस्थाओं का ह्रास करते हुए उसको केवल समस्त भौतिक सर्वैश्वर्यों से सम्पन्न कर देती हैं !
महाविद्या के रूप में इनकी साधना करने से केवल भौतिक सम्पन्नता की ही प्राप्ति होती है, जिस सम्पन्नता के मद में स्वार्थवश जीव अपनी मानवीय, धार्मिक, नैतिक व न्यायिक सीमाओं का अतिक्रमण करने से तनिक भी नहीं चूकता है ! अतः इस प्रकार से की जाने वाली साधना पुर्णतः भौतिक साधना होती है, जिसमें धर्म व आध्यात्म की उपस्थिति व लाभ अनिवार्य नहीं होता है, साधक स्वयं के प्रयास से स्वयं को मानवीय, धार्मिक, नैतिक व न्यायिक सीमाओं का अतिक्रमण करने से रोक कर आध्यात्मिक बना रह सकता है !
यह साधना गुरुगम्य होकर विधिवत् दीक्षा संस्कार सम्पन्न कराकर मन्त्र भेद के अनुसार 11, 21 या 41 दिन में विधिवत् सम्पन्न कर ली जाती है !
2 श्रीविद्या साधना विधान :- श्रीकुल की रीती से “श्रीविद्या पूर्णाभिषेक” में दीक्षित हुआ साधक अपनी श्रीविद्या साधना के अन्तर्गत श्रीविद्या के नियमानुसार “षोडशाक्षरी विद्या” द्वारा सबसे पहले प्रथम पुरुषार्थ “धर्म” की अधिष्ठात्री के रूप में बालस्वरुप षोडशी का ध्यान करते हुए इनकी साधना को सम्पन्न करता है ! तथा साधक की यह साधना विधिवत् संपन्न हो जाने पर भगवती षोडशी अपने श्रीविद्या साधक के जीवन के समस्त आन्तरिक व वाह्य पाप, ताप, दोष, अनीति व अधर्म की समस्त अवस्थाओं तथा कर्मों का ह्रास व “निषेध” करते हुए उसको “धर्म” पुरुषार्थ प्रदान कर उसके लिए शेष तीन पुरुषार्थों अर्थ, काम व मोक्ष पुरुषार्थों की क्रमशः प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर उसको अग्रिम साधना की ओर अग्रसारित करने के साथ ही उसकी साधना में “मोक्ष” पुरुषार्थ प्राप्त होने तक आध्यात्म मार्ग में स्वयं उसका पूर्ण मार्गदर्शन व सहयोग करती हैं ।
इस प्रकार से की गई साधना पूर्ण रूप से आध्यात्मिक साधना होती है, क्योंकि इस साधनाकाल में भगवती षोडशी अपने श्रीविद्या साधक के समस्त आन्तरिक व वाह्य पाप, ताप, दोष, अनीति व अधर्म की समस्त अवस्थाओं तथा कर्मों का ह्रास व “निषेध” करते हुए उसको “धर्म” पुरुषार्थ प्रदान करती है, जिसके परिणाम स्वरूप वाह्यान्तर से निष्पाप हो चुका ऐसा साधक नीति, धर्म, मानवता व न्याय के विपरीत कोई कर्म ही नहीं करता है !
यह साधना गुरुगम्य होकर विधिवत् “श्रीविद्या पूर्णाभिषेक” दीक्षा संस्कार सम्पन्न कराकर की जाती है, तथा यह साधना श्रीविद्या साधना विधान “षोडशाक्षरी विद्या” के अन्तर्गत होने के कारण पृथक से किसी महाविद्या की दीक्षा नहीं होती है, केवल श्रीविद्या साधना विधान के अनुसार ही न्यूनतम 41 दिन अथवा इससे अधिक में विधिवत् सम्पन्न कर ली जाती है !
इनकी उपासना (अर्थात विभिन्न प्रकार से पूजा, पाठ, अर्चना, यज्ञ, स्तोत्र, भक्ति, आदि के द्वारा इनको परा अवस्था में प्रसन्न (सिद्ध) कर मनोरथ सिद्ध करना, अथवा परा या अपरा अवस्था में स्वयं को इनकी शक्ति में अथवा इनकी शक्ति को स्वयं में विलय करने की प्रक्रिया) “महाविद्या” व “श्रीविद्या” दोनों ही विधान में दीक्षित हुए साधकों द्वारा श्रीचक्र (श्री यन्त्र) या नव योनी चक्र के केंद्र में बालस्वरुप में की जाती है ।