सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही उपदेवीयों (जिन्हें यक्षिणी के नाम से जाना जाता है,) की साधना का प्रचलन रहा है , क्योंकि इनकी साधना वैदिक देवी देवताओं की साधना से कहीं अधिक सहज व सरल होती हैं, यही कारण है कि अत्यंत कम समय में ही भौतिक व आर्थिक रूप से अपेक्षित परिणाम देकर भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करने वाली उपदेवी यक्षिणियों की साधना सामान्य गृहस्थ जन भौतिक व आर्थिक समृद्धि हेतु तथा सन्यासी जन सहयोगीमात्र के रूप में करते आये हैं !
सनातन धर्म की एक शाखा “जैन सम्प्रदाय” सनातन धर्म की अन्य सभी शाखाओं की अपेक्षा सर्वाधिक धन, संपत्ति व व्यवसाय से परिपूर्ण होते हैं, क्योंकि वह मणिभद्र, पद्मावती आदि किसी न किसी यक्ष अथवा यक्षिणी की विधिवत साधना या पूजा अवश्य संपन्न करते हैं !
यक्षिणियां अत्यंत कम समय में ही भौतिक व आर्थिक रूप से अपेक्षित परिणाम देकर भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करती हैं , साथ ही साधक द्वारा उनकी शक्तियों का सही प्रयोग किये जाने पर आध्यात्म के मार्ग में भी सहायक होती हैं !
भगवान रूद्र व देवकोष के स्वामी धनाधिपति यक्षराज कुबेर की घनिष्ठ मित्रता के एक रहस्य के परिणाम स्वरूप श्रावण माह में एक विशेष विधि से शिवलिंग पूजन करने या तंत्रोक्त पद्धति से लिंगार्चन अथवा चक्रार्चन करने मात्र से अनेक यक्षिणियां स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं ! किन्तु यक्षिणी साधना आध्यात्मिक व आत्मोत्थान मार्ग का आधार कभी नहीं होती है !
यक्षिणियों की साधना अनेक रूपों में की जाती है, जैसे माँ, बहन, पत्नी अथवा प्रेमिका के रूप में इनकी साधना की जाती है, ओर साधक जिस रूप में इनको साधता है ये उसी प्रकार का व्यवहार व परिणाम भी साधक को प्रदान करती हैं, माँ के रूप में साधने पर वह ममतामय होकर साधक का सभी प्रकार से पुत्रवत पालन करती हैं तो बहन के रूप में साधने पर वह भावनामय होकर सहयोगात्मक होती हैं, ओर पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर उस साधक को उनसे अनेक सुख तो प्राप्त हो सकते हैं किन्तु उसे अपनी पत्नी व संतान से दूर हो जाना पड़ता है !!!
बहुत से साधक जानकारी के अभाव में बाजार में उपलब्ध संक्रमित ग्रंथों को पढ़कर, अथवा अनुभवहीन व्यक्ति या साधक की लुभावनी बातों में आकर पत्नी या प्रेमिका के रूप में यक्षिणी साधना कर बैठते हैं, ओर इसके दुष्परिणाम स्वरूप ऐसे साधक अपने गृहस्थ जीवन व पत्नी से हाथ धो बैठते हैं ! क्योंकि माँ अथवा बहन के रूप में ये किसी बाध्यता के बिना ही साधक को सभी भौतिक सुख संसाधनों की सहजता प्रदान करती हैं, ओर पत्नी या प्रेमिका के रूप में साधने पर उस साधक को पत्नी या प्रेमिका के रूप में उनसे अनेक सुख तो प्राप्त हो सकते हैं किन्तु उसे अपनी पत्नी को त्यागने की बाध्यता निश्चित होती है ! अतः एक समझदार व्यक्ति को यक्षिणी साधना सदैव माँ के रूप में ही करनी चाहिए, पत्नी या प्रेमिका के रूप में कभी भी नहीं करनी चाहिए ! यक्षिणी साधना के दिनों में ब्रह्मचर्य से रहना अनिवार्य है, तथा मांस, मदिरा ओर पान नहीं खाया जा सकता है !
एक यक्षिणी साधना :-
शुक्र के प्रभावकाल अर्थात 24 वर्ष तक की आयु के साधक की ऊर्जा प्रबल व उत्तम होने के कारण विधिवत दीक्षित होकर पुर्णतः गुरु के निर्देशन में रहकर सभी आवश्यक नियमों का पालन करते हुए मात्र 7 से 9 दिन में किसी एक यक्षिणी की साधना पूर्ण कर यक्षिणी सिद्धि प्राप्त कर सकता है, तथा इससे अधिक आयु के साधक को ऊर्जा के बल की न्यूनता के कारण साधना में तीन गुणा तक का समय अवश्य लग सकता है !
अष्ट यक्षिणी साधना :-
शुक्र के प्रभावकाल अर्थात 24 वर्ष तक की आयु के साधक की ऊर्जा प्रबल व उत्तम होने के कारण विधिवत दीक्षित होकर पुर्णतः गुरु के निर्देशन में रहकर सभी आवश्यक नियमों का पालन करते हुए मात्र 30 दिन में आठों यक्षिणी की साधना पूर्ण कर यक्षिणी सिद्धि प्राप्त कर सकता है, तथा इससे अधिक आयु के साधक को ऊर्जा के बल की न्यूनता के कारण साधना में तीन गुणा तक का समय अवश्य लग सकता है !
भारतीय आगम, निगम तन्त्र शास्त्रों में यक्षिणी साधना प्रारम्भ करने हेतु आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथी (गुरुपूर्णिमा) तथा श्रावण व माघ मास के शुक्रवार को प्रशस्त कहा गया है, इसपर भी शुक्रवार से युक्त आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथी को यक्षिणी साधना प्रारम्भ करने हेतु सर्वोत्तम कहा गया है !
भौतिक व आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर पड़ चुके व्यक्तियों को कम समय में ही अपेक्षित परिणाम देने वाली यह यक्षिणी साधना अवश्य ही संपन्न कर लेनी चाहिए !