अनुमानतः सभी धर्म व सम्प्रदायों में कुछ प्राणी ऐसे हुआ करते हैं जिनको किसी विषय में कुछ ज्ञान हो या न हो, उस विषय का कभी अध्ययन किया हो अथवा न किया हो, उस विषय का कभी अनुभव किया हो अथवा न किया हो, किन्तु फिर भी उस विषय पर अपनी विशेषज्ञता का एकाधिकार अवश्य ही रखते हैं !
और हम हम इन विशेषज्ञता का एकाधिकार रखने वाले महापुरुषों व सिद्धगुरुओं के महापुरुषत्व व सिद्धगुरुत्व के भीतर से धर्म के नाम पर धर्मभीरु जनमानस की भावनाओं, धन व जीवन को अपनी विलासिता में व्यय, संस्कार घात, शास्त्रघात और धर्मघात जैसे गम्भीर रोगों के अब असाध्य रोग बन जाने की जानकारी विवेकशून्य समाज के सामने रख रहे हैं !
बहुत सारे सिद्धगुरु अपने शिष्यों को दशमहाविद्याओं की दीक्षा देने वाले पाए जाते हैं, इनके बारे में सुनकर अंतर्मन से यही शब्द निकलते हैं कि “अरे बावले ! दशमहाविद्याओं की दीक्षा अपने शिष्यों को देना तो बहुत दूर की बात है, जो तुझसे आस लगाए हुए बैठे हैं उन भोले भाले जीवों को इस भ्रम में मत डाल, ओर यदि हो सके तो तू पहले अपने लिए किसी एक कुल की चार महाविद्याएँ (एक कुल) को ही सात्विकता से साधकर देख ले, उसी से तेरा और इन सबका भी कल्याण हो जायेगा !!! क्योंकि पांच महाविद्या से आगे तो जगद्गुरु आदि शंकराचार्य भी नहीं जा पाए थे, ओर कोई भी सक्षम साधक एक कुल को ही बड़ी मुश्किल से साध पाता है तो फिर तुम दश-दश महाविद्याओं की दीक्षा कहाँ से दोगे ???
और इन महापुरुषों के साथ में आमजनमानस भी ऐसा ही हो चुका है, क्योंकि किसी को फोन पर दीक्षा चाहिए होती है, तो किसी को ऑनलाईन “इन्टरनेट” के द्वारा दीक्षा चाहिए, तो किसी के पास समय नहीं है वो किसी अन्य व्यक्ति से साधना कराकर उसका फल लेना चाहता है, और यदि साधना करेंगे भी तो सबको साधना के नियमों में छूट और समझौता चाहिए होता है ! कुछ लोगों को साधना तो करनी होती है, लेकिन साधना के नियमों में छूट को लेकर ऐसे मोल भाव करते हैं जैसे कि साधना साधना ना होकर साप्ताहिक सब्जी मंडी हो गयी है !
ऐसे ही अहस्तांतरणीय व असंशोधनीय साधनात्मक विषयों में “पूर्वाग्रही, समझौतावादी, साधना के नियमों में छूट को लेकर मोल भाव करने वाले” आम जनमानस और चेतनाहीन, अर्थार्थी व्यवसायिक महागुरुओं व सिद्धगुरुओं की लम्बी फौज के कारण ही हमारा सनातन धर्म उत्थान के स्थान पर पतन की राह पर चला जा रहा है, और इस स्थिति में कल्याण का स्वपन देखना दिवास्वपन ही है !
जिनको सही मार्गदर्शन नहीं मिलता है अथवा जो सही मार्गदर्शन मिलने पर भी अहंकार की उपासना ही करना चाहते हैं वह साधक या तो भोग साधना व षट्कर्म साधनाओं को प्राप्त कर उनके भोगों में अपने सत्कर्मों की तिलांजली करते हैं, या फिर महाविद्याओं की नायिकाओं व योगिनियों अथवा अन्य अनेक पराशक्तियों की शक्तियों का अपने स्वार्थ, धन, अहंकार, बैर, पद, प्रतिष्ठा आदि के लिए मारण, प्रताड़न, दमन, उच्चाटन, विद्वेषण आदि में प्रयोग कर अपनी अनेक जन्मों के लिए दुर्गति होने की नींव ही मजबूत करते हैं और बात करते हैं धर्म ओर कल्याण की !!!
डंडा जिसके हाथ में हो वह किसी को डंडा मारे तो यह कर्म डंडे का तो नहीं होगा ? यह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होता है, ठीक उसी प्रकार उन पराशक्तियों की शक्ति, तन्त्र या प्रभाव रूपी डंडा जिसके हाथ में है वो किसी को वह शक्ति या तन्त्र रूपी डंडा मारे तो वह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होगा, यह कर्म मेरा या किसी और का कर्म तो नहीं बन जायेगा !!! निम्न स्तर का षट्कर्म करने वाले इन महाविद्वान मूर्खों को मारण, उच्चाटन, वशीकरण ओर जूए की हार-जीत बताने जैसे कर्मों को करने से धर्म, कल्याण ओर ईश्वर की प्राप्ति दिखाई पड़ती है, ओर अपनी ऐसी ही विद्याओं के सहारे पर यह लोग भोले-भाले आम जनमानस को धर्म के नाम पर अधर्म ओर पतन की खाई में धकेलते जा रहे हैं !!! यह इसलिए लिखा गया है क्योंकि कुछ तन्त्र व ऐन्द्रजालिक चमत्कारों के सहारे पर सिद्धगुरु कहलाने वाले महापुरुष यह तन्त्र रूपी डंडा मारने व निम्न स्तर का षट्कर्म करने की क्रियाओं को ही वास्तविक और सच्ची शक्ति उपासना का आवरण दिए हुए हैं !
इसलिए कहाँ ब्रह्म है ? ओर कहाँ भ्रम है ? यह पता लगाना बहुत कठिन है ! बस सब अपनी अपनी कुलदेवी की ही आराधना कर लो तो तुम्हारे अपने कुल परिवार के लिए इतना ही पर्याप्त हो जायेगा, अन्यथा ये सन्यासी जैसा मेकअप किये हुए बहरूपिये तुम्हारे सिद्धगुरु ओर महागुरु बनकर “खुद सोने की नाव में बैठकर, तुमको बिना आग पानी के समुद्र में डुबोकर मारेंगे, और स्वयं ख्याती और दंभ की आग के समुद्र में जलते हुए मारे जाएंगे !!”
(किसी को इस लेख से आघात पहुंचा हो तो कृपया हमें क्षमा मत करना, बस आत्ममंथन करना कि आप ब्रह्म के मार्ग पर हैं, या भ्रम की गर्त में हैं ???)