श्री भुवनेश्वरी पीठ मंदिर उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में श्री नीलकंठ महादेव मंदिर से 1½ किलोमीटर दूर ब्रह्मकूट पर्वत के शिखर पर भौन गांव में स्थित है । यहां तक पहुचने के लिये नीलकण्ठ से दो रास्ते हैं पहला पैदल मार्ग है जो कि नीलकण्ठ मंदिर से सिद्धबली बाबा के मन्दिर होते हुये लगभग डेढ़ किलोमीटर लम्बा है । दूसरा मार्ग नीलकण्ठ सड़क मार्ग से पार्किंग के पास से एक कच्ची सड़क मोटर मार्ग है जो कि लगभग 3 किलोमीटर की दूरी तय करके भौन गांव तक पहुंचता है । भौन गांव प्रकृति की गोद में बसा एक मनोरम पहाड़ी गांव है और इसी के मध्य में स्थित है श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ ।
पुराणोक्त कथा के अनुसार ‘कालकूट’ नामक विष को भगवान शिव अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ कहलाये और उस विष के प्रभाव को शांत करने के निमित्त मणिकूट पर्वत की घाटी में मणिभद्रा व चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित बरगद की छांव तले पुर्णतः एकांत समाधिस्थ हो गए थे . भगवान शिव के एकांत समाधिस्थ हो जाने पर किसी को भी यह ज्ञात नहीं था कि भगवान शिव कहां हैं, माता सती, सहित समस्त देवतागणों ने भगवान शिव को खोजना शुरू कर दिया । खोजते-खोजते 40 हजार वर्ष बीत जाने पर माता सती को पता चला कि भगवान शिव मणिकूट, पर्वत के मूल में मधुमती (मणिभद्रा) तथा पंकजा नन्दिनी (चन्द्रभद्रा) नामक पवित्र धाराओं के संगम पर विष्णु पुष्कर नामक तीर्थ के समीप एक वट वृक्ष के मूल में समाधिस्थ होकर कालकूट विष की ऊष्णता को शांत कर रहे हैं ।
भगवान शिव के समाधि-स्थल का पता लग जाने पर श्री सती जी कैलाश से यहां आ गई, लेकिन देवी सती के आगमन के उपरान्त भी भगवान शिव की समाधि नहीं खुली। अत: देवी सती भी भगवान श्री नीलकण्ठ के तपस्थल से अग्निकोण में ब्रह्मकूट नामक पर्वत के शिखर पर पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदी के उद्गम स्थल से ऊपर बैठकर तपस्या करने लगीं । इस स्थान पर तपस्या करते करते जब भगवती श्री सती जी को 20 हजार वर्ष व्यतीत हो गये तब कहीं 60 हजार वर्षों के बाद श्री नीलकण्ठ महादेव जी की समाधि खुली ।
माता सती के इस अनन्य तप के कारण यह स्थान सिद्धपीठ कहलाया । देवताओं के आग्रह पर माता सती यहां पिण्डी रूप में विराजमान हुईं । माता भुवनेश्वरी का मन्दिर आठ गावों का मुख्य मन्दिर है । श्रावण मास तथा शारदीय नवरात्र के दौरान इस मन्दिर में मेला लगता है । इस दौरान मन्दिर की छटा देखते ही बनती है ।