!! संस्कृत !!
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं, न्यस्तैकाङि्घ्रं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् ।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां, मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम् । ।
‘ॐ’ ऋषिरुवाच । । १ । ।
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः । चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः । । २ । ।
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् । सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने । । ३ । ।
ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः । आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः । । ४ । ।
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन्प्रति । कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा । । ५ । ।
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्दृतम् । काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी । । ६ । ।
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा । द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा । । ७ । ।
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा । निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा । । ८ । ।
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान् । सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् । । ९ । ।
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् । समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् । । १० । ।
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह । निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् । । ११ । ।
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम् । पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् । । १२ । ।
तैर्मुक्त्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः । मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि । । १३ । ।
बलिनां तद्बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् । ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा । । १४ । ।
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः । जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा । । १५ । ।
क्षणेन तद्बलं सर्वमसुराणां निपातितम् । दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् । । १६ । ।
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः । छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः । । १७ । ।
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् । बभुर्यथाऽर्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् । । १८ । ।
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी । काली करालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला । । १९ । ।
उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत । गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् । । २० । ।
अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा । । २१ । ।
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् । । २२ । ।
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च । प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् । । २३ । ।
मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू । युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि । । २४ । ।
ऋषिरुवाच । । २५ । ।
तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ । उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः । । २६ । ।
यस्माच्चण्डम् च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता । चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवी भविष्यसि । । ॐ । । २७ । ।
!! हिन्दी अनुवाद !!
!! चण्ड और मुण्ड का वध !!
महर्षि मेधा ने कहा-दैत्यराज की आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर हथियार उठाये हुए देवी से लड़ने के लिए चल दिये। हिमालय पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने मुस्कुराती हुई देवी जो सिंह पर बैठी हुई थी देखा, जब असुर उनको पकड़ने के लिए तलवारें लेकर उनकी ओर बढ़े तब अम्बिका को उन पर बड़ा क्रोध आया और मारे क्रोध के उनका मुख काला पड़ गया, उनकी भृकुटियाँ चढ़ गई और उनके ललाट में से अत्यंत भयंकर तथा अत्यंत विस्तृत मुख वाली, लाल आँखों वाली काली प्रकट हुई जो कि अपने हाथों में तलवार और पाश लिये हुए थी, वह विचित्र खड्ग धारण किये हुए थी तथा चीते के चर्म की साड़ी एवं नरमुण्डों की माला पहन रखी थी। उसका माँस सूखा हुआ था और शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा था और जो भयंकर शब्द से दिशाओं को पूर्ण कर रही थी, वह असुर सेना पर टूट पड़ी और दैत्यों का भक्षण करने लगी।
वह पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, हाथियों पर सवार योद्धाओं और घण्टा सहित हाथियों को एक हाथ से पकड़-2 कर अपने मुँह में डाल रही थी और इसी प्रकार वह घोड़ों, रथों, सारथियों व रथों में बैठे हुए सैनिकों को मुँह में डालकर भयानक रूप से चबा रही थी, किसी के केश पकड़कर, किसी को पैरों से दबाकर और किसी दैत्य को छाती से मसलकर मार रही थी, वह दैत्य के छोड़े हुए बड़े-2 अस्त्र-शस्त्रों को मुँह में पकड़कर और क्रोध में भर उनको दाँतों में पीस रही थी, उसने कई बड़े-2 असुर भक्षण कर डाले, कितनों को रौंद डाला और कितनी उसकी मार के मारे भाग गये, कितनों को उसने तलवार से मार डाला, कितनों को अपने दाँतों से समाप्त कर दिया और इस प्रकार से देवी ने क्षण भर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया।
यह देख महा पराक्रमी चण्ड काली देवी की ओर पलका और मुण्ड ने भी देवी पर अपने भयानक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी और अपने हजारों चक्र उस पर छोड़े, उस समय वह चमकते हुए बाण व चक्र देवी के मुख में प्रविष्ट हुए इस प्रकार दिख रहे थे जैसे मानो बहुत से सूर्य मेघों की घटा में प्रविष्ट हो रहे हों, इसके पश्चात भयंकर शब्द के साथ काली ने अत्यन्त जोश में भरकर विकट अट्टहास किया। उसका भयंकर मुख देखा नहीं जाता था, उसके मुख से श्वेत दाँतों की पंक्ति चमक रही थी, फिर उसने तलवार हाथ में लेकर “हूँ” शब्द कहकर चण्ड के ऊपर आक्रमण किया और उसके केश पकड़कर उसका सिर काटकर अलग कर दिया, चण्ड को मरा हुआ देखकर मुण्ड देवी की ओर लपखा परन्तु देवी ने क्रोध में भरे उसे भी अपनी तलवार से यमलोक पहुँचा दिया।
चण्ड और मुण्ड को मरा हुआ देखकर उसकी बाकी बची हुई सेना वहाँ से भाग गई। इसके पश्चात काली चण्ड और मुण्ड के कटे हुए सिरों को लेकर चण्डिका के पास गई और प्रचण्ड अट्टहास के साथ कहने लगी-हे देवी! चण्ड और मुण्ड दो महा दैत्यों को मारकर तुम्हें भेंट कर दिया है, अब शुम्भ और निशुम्भ का तुमको स्वयं वध करना है।
महर्षि मेधा ने कहा-वहाँ लाये हुए चण्ड और मुण्ड के सिरों को देखकर कल्याणकायी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा-हे देवी! तुम चूँकि चण्ड और मुण्ड को मेरे पास लेकर आई हो, अत: संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी ।
। । श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः सम्पूर्णं । ।