सृष्टि के आदि से लेकर अंत तक की सभी स्थितियों व कार्यो के मूल में शक्ति ही होती है । शक्ति की आवश्यक मात्रा और उचित उपयोग ही मानव जीवन में सफलता का निर्धारण करती है, इसलिए शक्ति का अर्जन और उसकी वृद्धि ही मानव की मूल कामना होती है । धन, सम्पत्ति, समृद्धि, राजसत्ता, शारीरिक बल, अच्छा स्वास्थ्य, बौद्धिक क्षमता, नैतृत्व क्षमता आदि ये सब शक्ति के ही विभिन्न रूप हैं । इनमें असन्तुलन होने पर अथवा किसी एक की अतिशय वृद्धि मनुष्य के विनाश का कारण बनती है ।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शक्ति की प्राप्ति पूर्णता का प्रतीक नहीं है, वरन् शक्ति का सन्तुलित मात्रा में होना ही पूर्णता है । शक्ति का सन्तुलन विकास का मार्ग प्रशस्त करता है, वहीं इसका असंतुलन विनाश का कारण बनता है । समस्त प्रकृति पूर्णता और सन्तुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है । मनुष्य के पास प्रचुर मात्र में केवल धन ही हो तो वह धीरे-धीरे विकारों का शिकार होकर वह ऐसे कार्यों में लग जायेगा जो उसके विनाश का कारण बनेगें । इसी प्रकार यदि मनुष्य के पास केवल ज्ञान हो तो वह केवल चिन्तन और विचारों में उलझकर योजनाएं बनाता रहेगा । साधनों के अभाव में योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो पायेगा । यदि मनुष्य में असिमित शक्ति हो तो वह अपराधी या राक्षसी प्रवृत्ति का हो जायेगा जिसका परिणाम विनाश ही है ।
जीवन के विकास और उसे सुन्दर बनाने के लिये धन- ज्ञान और शक्ति के बीच संतुलन आवश्यक है ।
श्रीविद्या साधना मनुष्य को तीनों शक्तियों की संतुलित मात्रा प्रदान करती है और उसके लोक परलोक दोनों सुधारती है । जब मनुष्य में शक्ति संतुलन होता है तो उसके विचार पूर्णतः सकारात्मक होते हैं जिससे प्रेरित कर्म शुभ होते हैं और शुभ कर्म ही मानव के लोक – लोकान्तरों को निर्धारित करते हैं तथा मनुष्य सारे भौतिक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है ।