श्री विद्या आत्म साधना है. अपनी आत्मा को जानना और अपनी क्षमताओं का विकास करना ही इस विद्या की साधना का मूल है . इस विद्या से हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके द्वारा हम अपने जीवन का उच्च स्तरीय विकास कर सुख दुःख से परे होकर सही मायनो में जीवन का आनंद प्राप्त कर सकते है यह बहुत ही प्राचीन वैदिक विद्या है जिसके विषय में विभिन्न ग्रंथों से हमें अलग अलग माध्यमों से जानकारी प्राप्त होती है. श्रीविद्या की उपास्य शक्तियों को ललिता, राजराजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बाला, त्रिपुरा, षोडशी आदि नामों से जाना जाता है मूल तत्व में यह एक ही है मगर भाव और अवस्था के अनुसार इसमें भेद दिखाई देता है !
श्रीविद्या के चार कुल – श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल व एक गुप्त कुल, तथा मात्र चार संप्रदाय – हयग्रीव, नन्दिकेश्वर, लोपामुद्रा व एक गुप्त सम्प्रदाय, चार चरण या पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष, व चार पीठ – कामरूप पीठ, उड्डीयान पीठ, जालंधर पीठ व एक अन्य गुप्त पीठ हैं ! इनको चार ही पद्धतियों – हादी, कादी, कहादी (वादी) व एक अन्य गुप्त (जिसे यहाँ सार्वजनिक करना उचित नहीं) ! व चार आम्नाय होते हैं, तथा प्रत्येक आम्नाय का एक कुल, एक पीठ, एक सम्प्रदाय, सोलह पद्धति व क्रमशः चार उपास्य शक्तियां होती हैं ! इनमें से किसी एक पद्धति में विधिवत दीक्षित होकर अपने आम्नाय के अनुसार श्रीविद्या की साधना की जाती है !
श्रीविद्या के चारों सम्प्रदाय व पद्धति में कुल सोलह उपास्य शक्तियां होती हैं जैसे – ललिता, तारा, राजराजेश्वरी, कामाक्षी, महात्रिपुरसुन्दरी, बाला, षोडशी, आदि ! प्रत्येक सम्प्रदाय व पद्धति में उन सोलह उपास्य शक्तियों में से ही कुल व पद्धति के अनुसार चार उपास्य शक्तियां होती हैं ! जिनमें से प्रथम शक्ति साधक के लिए धर्म का, दूसरी शक्ति अर्थ का, तृतीय शक्ति काम का व चतुर्थ शक्ति मोक्ष का निर्धारण कर प्रदान करती हैं ! यह एक ऐसी परम रहस्यमयी सर्वोच्च विद्या है जो भोग और मोक्ष दोनों एक साथ प्रदान करती है !
किन्तु आम्नाय के सिद्धांतों के विपरीत कुल, पद्धति, सम्प्रदाय, पीठ व शक्तियों की मूल अवस्थितियों की अवहेलना या अतिक्रमण करते हुए श्रीविद्या साधना करना या कराना यह दोनों ही पतन का कारण व निम्नता का प्रमाणपत्र हैं, और शिष्य को अपने गुरु से दीक्षा लेने के समय आम्नाय के सिद्धांत का यह पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ही श्रीविद्या साधना करनी चाहिए अन्यथा कदापि नहीं ! क्योंकि श्रीविद्या साधना मानव जनित विद्या नहीं है कि कोई इसके विधान में जैसा चाहे वैसा स्वैच्छिक संशोधन कर सके, ओर न ही कोई मानव इसके विधान में अतिक्रमण या संशोधन कर सकता है !
अतः प्रत्येक श्रीविद्या साधक के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह जिस सम्प्रदाय, कुल, पीठ, व परम्परा में जिस एक पद्धति से साधना सम्पन्न करने हेतु दीक्षित हुआ है, उसी पद्धति का पूर्ण विधान आत्मसात करने के उपरान्त ही केवल उसी सम्प्रदाय, कुल, पीठ, व परम्परा की उसी पद्धति द्वारा अपनी साधना को सम्पन्न करे ! अन्यथा अन्य सम्प्रदाय, कुल, पीठ, परम्पराओं व पद्धतियों की जानकारियां एकत्र कर उन जानकारियों को उसके गुरु द्वारा प्रदत्त साधना पद्धति में सम्मिलित कर अपनी साधना पद्धति का अतिक्रमण कर उसमें संक्रमण उत्पन्न न करें ! यदि किसी श्रीविद्या साधक ने अपनी सीमा को लांघकर अन्य सम्प्रदाय, कुल, पीठ, परम्पराओं व पद्धतियों की जानकारियां को उसके गुरु द्वारा प्रदत्त साधना पद्धति में सम्मिलित कर अपनी साधना पद्धति का अतिक्रमण कर उसमें संक्रमण उत्पन्न कर लिया तो फिर वह साधक आजीवन “न घर का रहेगा, न घाट का” !
क्योंकि “मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यं” के सिद्धान्त को अपने जूते का पताम समझकर बदलने की मानसिकता रखने वाले किसी श्रीविद्या साधक के द्वारा अपनी साधना पद्धति का अतिक्रमण कर उसमें संक्रमण उत्पन्न करने के कृत्य का कोई समाधान भी नहीं है ! ऐसे “गुरुद्रोही व देवद्रोही” के लिए केवल एक ही मार्ग शेष बचता है कि वह उसके गुरु द्वारा प्रदत्त साधना पद्धति में उसके अतिरिक्त जो भी न्यूनाधिक किया था उसका निस्तारण कर वापस उसके गुरु द्वारा प्रदत्त साधना पद्धति पर ही चला जाए ओर अपनी साधना को सम्पन्न करे !