सिद्ध भैरवी चक्र इस सृष्टि की एक अद्भुत व रहस्यमय संरचना है, जो कि प्रत्येक जीव की देह व आत्मा से लेकर सृष्टि के सभी गहन रहस्यों को अपने अन्दर समेटे हुए है । हमारे वेदों व अगम निगम ग्रंथों में इस भैरवी चक्र को संहार चक्र व सृष्टि चक्र के रूप में जाना गया है !
उन्नत भैरवी चक्र में तीन प्रधान त्रिकोणों से सृजित हुए कुल नौ त्रिकोण होते हैं इसलिए इस चक्र को नवयौन्यात्मक चक्र व नव योनि चक्र भी कहते हैं, तथा इसके प्रत्येक त्रिकोण की एक एक अधिष्ठात्री शक्तियां होती हैं ।
वेदों व अगम निगम शास्त्रों में भैरवी चक्र पांच प्रकार के होते हैं जिनके सृजन की प्रक्रिया पृथक पृथक होती है, किन्तु उनमें से सिद्धभैरवी चक्र वह होता है जिसमें तीन प्रधान त्रिकोणों से कुल नौ त्रिकोणों का सृजन हो रहा हो ! इस प्रकार निर्मित चक्र को ही नवयोनी चक्र व नवयोन्यात्मक चक्र कहा जाता है !
हमारे मूल वेदों में कहीं पर भी श्रीचक्र या श्रीयन्त्र का वर्णन नहीं है, वेदों में केवल संहार चक्र व सृष्टि चक्र का ही वर्णन है ! और संहार चक्र व सृष्टि चक्र का स्वामी अवस्था (समय/काल) है जिसे हम जन्म के बाद बाल्य, तरुण, प्रौढ़ व वृद्धावस्था के बाद पुनर्विलय (मृत्यु) के रूप में जानते हैं ! सिद्ध भैरवी चक्र को ही ह्यग्रीव, आनंदभैरव, कुबेर, सूर्य व इन्द्र आदि दैवीय शक्तियों द्वारा अंतर्दशार, वाह्यदशार व चतुर्दशार का सृष्टिक्रम में विस्तार कर श्रीचक्र या श्रीयन्त्र के रूप में विस्तार किया गया है ।
सिद्ध भैरवी चक्र की साधना :- (अर्थात जप, तप, आत्मसंधान, यज्ञ आदि के द्वारा इसकी शक्ति के साथ अपना आत्मसामन्जस्य स्थापित करने की प्रक्रिया) विभिन्न साधना पद्धतियों में दीक्षित हुए साधकों द्वारा कौलाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, समयाचार आदि विधियों से वेद व अगम निगम ग्रंथों में उपलब्ध अनेक पद्धतियों से की जाती है, व इसकी साधना वाह्यान्तर आनन्द से परिपूर्ण होती है ।
सिद्ध भैरवी चक्र की उपासना :- (अर्थात विभिन्न प्रकार से पूजा, पाठ, अर्चना, यज्ञ, स्तोत्र, भक्ति, आदि के द्वारा सिद्ध कर इसकी शक्ति को स्वयं में विलय करने की प्रक्रिया) विभिन्न साधना पद्धतियों में दीक्षित हुए साधकों द्वारा कौलाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, समयाचार आदि विधियों से वेद व अगम निगम ग्रंथों में उपलब्ध अनेक पद्धतियों से की जाती है, व इसकी उपासना वाह्यान्तर आनन्द से परिपूर्ण होती है ।
सिद्ध भैरवी चक्र की साधना व उपासना के निम्नलिखित दो मुख्य मार्ग हैं :-
1 :- पूर्वकौलाचार, दक्षिणाचार व समयाचार की सात्विक पद्धति :- इस पद्धति में पंच “म”कार (मांस, मदिरा, मीन, मैथुन व मुद्रा) के सात्विक विकल्पों द्वारा शक्ति (भैरवी) स्वरूप आत्मयोनी, योनिमुद्रा व चक्रस्थ त्रिकोण तथा शिव (भैरव) स्वरूप आत्मलिंग व पुरुष लिंग की षोडशोपचार पूजा व (सर्वस्वरूप) भैरवी चक्र पूजा, पाठ, मन्त्र जप, तप, यज्ञ व साधक द्वारा अक्षय ऊर्जा का सृजन व श्रृष्टिसंधान (आत्ममैथुन) का कार्य स्वयं को अर्धनारीश्वर मानकर कामाग्नि में स्थित होकर मन्त्र जप करते हुए अपने स्वयं के शरीर में स्थित ईडा (स्त्री) व पिंगला (पुरुष) नाड़ी के रमण द्वारा सुषुम्णा नाड़ी का भेदन कर आत्मसंधान कर साधना व पूजन सम्पन्न किया जाता है ! इस साधना में हमारे शरीर के मूलाधार, मणिपूरक व स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित काम ऊर्जा का उर्ध्विकरण करना ही मुख्य लक्ष्य होता है, जिससे वह ऊर्जा सुषुम्णा नाड़ी के माध्यम से ऊर्ध्व गति करते हुए हमारे शरीर में स्थित सोलह शक्तिकेंद्रों में प्रवाहित हो दशम द्वार का भेदन करते हुए भैरवी चक्र व अखिल ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्तियों के साथ पूर्ण स्पष्टता से हमारा सम्बन्ध स्थापित कराती है ! यह साधना सदैव विषम अर्थात 3, 5, 7 आदि संख्या में पुरुष साधकों के समूह में ही सम्पन्न की जा सकती है !
इस पद्धति में पंच “म”कारों का भौतिक स्वरूप में प्रयोग न होकर सात्विक विकल्पों का प्रयोग होने के कारण इस पद्धति से यह साधना करना निश्चित ही सर्वग्राह्य होता है, और इस पद्धति में साधना करने में किसी भी प्रकार से व्यभिचार के व्याप्त होने की सम्भावनाएं नहीं होती हैं, तथा इस पद्धति से यह सिद्ध भैरवी चक्र साधना करना सर्वोत्तम व सर्वग्राह्य होता है !
इस पद्धति के अत्यन्त सरल व सर्वग्राही होने के कारण से श्री ज्योतिर्मणि पीठ पर इस पद्धति से ही साधना सम्पन्न करने का विधान है !
2 :- उत्तरकौलाचार व वामाचार की तामसी पद्धति :- इस पद्धति में पंच “म”कार (मांस, मदिरा, मीन, मैथुन व मुद्रा) की दैहिक प्रधानता से युक्त शक्ति (भैरवी) स्वरूप स्त्री योनी व शिव (भैरव) स्वरूप पुरुष लिंग की षोडशोपचार पूजा व (सर्वस्वरूप) भैरवी चक्र पूजा, पाठ, मन्त्र जप, तप, आत्मसंधान, यज्ञ तथा कामाग्नि में स्थित होकर मन्त्र जप करते हुए भैरव (पुरुष) व भैरवी (स्त्री) साधकों द्वारा अक्षय ऊर्जा का सृजन व श्रृष्टिसंधान (मैथुन) आदि कर साधना व पूजन सम्पन्न किया जाता है ! इस साधना में हमारे शरीर के मूलाधार, मणिपूरक व स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित काम ऊर्जा का उर्ध्विकरण करना ही मुख्य लक्ष्य होता है, जिससे वह ऊर्जा सुषुम्णा नाड़ी के माध्यम से ऊर्ध्व गति करते हुए हमारे शरीर में स्थित सोलह शक्तिकेंद्रों में प्रवाहित हो दशम द्वार का भेदन करते हुए भैरवी चक्र व अखिल ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्तियों के साथ पूर्ण स्पष्टता से हमारा सम्बन्ध स्थापित कराती है ! यह साधना सदैव सम अर्थात 2, 4, 6 आदि संख्या में स्त्री व पुरुष साधक साधिकाओं के समूह में ही सम्पन्न की जा सकती है !
किन्तु इस पद्धति में पंच “म”कारों का स्पष्ट प्रयोग होने के कारण इस पद्धति से यह साधना करना सर्वग्राह्य नहीं होती है, और इस पद्धति में आध्यात्म व साधना से कहीं अधिक पंच “व”कार (विषय, वासना, व्याकुलता, विकृति व व्यभिचार) के व्याप्त होने की सम्भावनाएं प्रबल होती हैं ! और इसी कारण से श्री ज्योतिर्मणि पीठ पर भी इस पद्धति से साधना करने का निषेध है !
श्री सिद्ध भैरवी चक्र की साधना को विधिवत् संपन्न करके सिद्ध भैरवी चक्र के रहस्य को जान लेने वाला साधक इस साधना के परिणाम स्वरूप अपने जीवन व इस सृष्टि के समस्त रहस्यों को जान लेता है, तथा अनाहक ही असंख्य शक्तियों एवं सिद्धियों ब्रह्मविद्या व श्रीविद्या जैसी सर्वोच्च विद्याओं को प्राप्त कर स्थिर चित्त व पूर्ण ब्रह्मवेत्ता बन जाता है ! ऐसा साधक अपने जीवन में समस्त गुह्य विद्याओं, गुह्य तन्त्र, अर्थ, काम, धन, धान्य, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य, विद्या सहित समस्त भौतिक सुख, सौभाग्य, यश, समृद्धि व सर्वैश्वर्यों को भोगते हुए सर्वोत्तम जीवन जीता है !
यह साधना गुरुगम्य होकर विधिवत् “कौलिक दीक्षा” संस्कार सम्पन्न कराकर साधना के भेद के अनुसार पृथक पृथक समय में विधिवत् सम्पन्न कर ली जाती है !