श्रीविद्या साधना का तीसरा पक्ष जो कि पुर्णतः विकृत व भ्रम युक्त है, क्योंकि इसको महाविद्या दीक्षा होते हुए भी आधुनिक युगपुरुष लोग श्रीविद्या साधना का ही नाम देते हैं, जबकि इसको “महाविद्या दीक्षा या भोग साधना” कहा जाता है व इस साधना में श्रीविद्या के कुल की महाविद्याओं में से किसी एक या दो महाविद्या अर्थात “श्रीविद्या समूह की किसी एक या दो देवियों” की दीक्षा प्रदान कर मत व अध्ययन के अनुसार महाविद्याओं के “त्र्यक्षरी, पंचाक्षरी, द्वाद्शाक्षरी, पंचदशाक्षरी या षोडशाक्षरी विद्या” आदि मन्त्रों से साधना सम्पन्न कराई जाती है ओर इसे भी श्रीविद्या साधना के नाम से प्रचारित व प्रसारित किया जाता है, इस दीक्षा का मूल विधान “श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा” प्राप्त सिद्ध साधकों, उच्च कोटि के तांत्रिकों, कर्मकाण्डी ब्राह्मणों, साधकों व पुस्तकों आदि में कहीं भी सहजता से उपलब्ध होता है !
श्रीविद्या की साधना के नाम से युक्त इस (विकृत व भ्रम युक्त) भेद “महाविद्या दीक्षा या भोग साधना” में दीक्षित हुआ साधक दीक्षा लेकर संप्रदाय व कुल के अनुसार श्रीविद्या के कुल की प्रथम, द्वितीय या तृतीय क्रम की किसी एक शक्ति की ही साधना करता है, इसमें चतुर्थ क्रम की साधना कदापि नहीं की जा सकती है, यदि फिर भी कोई चतुर्थ क्रम की साधना करने लगे तो वह साधना कभी भी पूर्ण नहीं हो पाती है, क्योंकि इसको पूर्ण करने के लिए अवस्था व पुरुषार्थानुसार क्रम से साधना सम्पन्न करना अनिवार्य होता है !
यह साधना एक ही चरण में संपन्न होती है तथा इस साधना में पुर्णतः साधक की ही भूमिका सर्वोच्च होती है ! इस भेद से साधना के परिणाम स्वरूप साधक को धर्म, अर्थ व काम सम्बंधी समस्त भौतिक सुख ऐश्वर्यों की अतिशय प्राप्ति अवश्य हो जाती है किन्तु धर्म गौण रह जाने के कारण मोक्ष बहुत दूर की कौड़ी होती है ! इसका साधक धर्म, अर्थ व काम में से मात्र किसी एक को ही पूर्णता से प्राप्त कर उसके सुखों को भोगते हुए जीवन व्यतीत करता है !
“महाविद्या दीक्षा या भोग साधना” प्राप्त साधक के पास तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ व काम में से किसी एक का ही विकल्प और साधना पूर्ण हो जाने पर अपने शिष्यों को केवल “महाविद्या दीक्षा” में अपने द्वारा साधित एक महाविद्या की दीक्षा ही देने का अधिकार व शक्ति सीमित होते हैं, व “महाविद्या दीक्षा या भोग साधना” प्राप्त साधक अपने शिष्यों को “श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा” व “श्रीविद्या क्रमदीक्षा” कदापि नहीं दे सकता है ! उपासना हेतु “महाविद्या दीक्षा या भोग साधना” लेना गौण होता है क्योंकि इसके साधक के पास अधिकार व शक्ति सीमित होते हैं ! सर्वाधिक साधक अज्ञानतावश इस पद्धति से दीक्षित होकर श्रीविद्या के भ्रम में महाविद्या साधना ही करते हैं !
इस प्रकार से की गयी साधना केवल “महाविद्या साधना” होती है “श्रीविद्या साधना” कभी भी नहीं होती है, क्योंकि श्रीविद्या साधना में पृथक पृथक अवस्था की महाविद्याएं पृथक पृथक पुरुषार्थ का निर्धारण करती हैं तब धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष पुरुषार्थ पूर्ण होने पर श्रीविद्या साधना पूर्ण होती है ! श्रीविद्या समूह की सभी महाविद्याएं श्रीविद्या की देवी अवश्य होती हैं किन्तु कोई भी महाविद्या अकेले श्रीविद्या नहीं होती हैं, और ना ही कोई भी अकेली महाविद्या “श्रीविद्या समूह” का संयुक्त फल ही दे सकती है ! कोई भी महाविद्या केवल एक पुरुषार्थ को पूर्ण करती है, जबकि श्रीविद्या चारों पुरुषार्थ को पूर्ण करती है क्योंकि श्रीविद्या पृथक पृथक अवस्थाओं व प्रभाव वाली चार महाविद्याओं का समूह होती है !
उदहारणतः – यदि कोई साधक त्रिपुरसुन्दरी, षोडशी या राजराजेश्वरी महाविद्या की साधना कर रहा है, तो उसको इस भ्रम में कदापि नहीं रहना चाहिए कि वह श्रीविद्या की साधना कर रहा है ! उसको यह स्मरण रखना चाहिए कि त्रिपुरसुन्दरी, षोडशी, ललिता व राजराजेश्वरी आदि महाविद्याएं श्रीविद्या की वह शक्तियां हैं जिनके पुरुषार्थों का समायोजन होने से श्रीविद्या पूर्ण बनती है, कोई भी अकेली महाविद्या श्रीविद्या की देवी अवश्य होती है किन्तु अकेली महाविद्या श्रीविद्या नहीं होती है, और ना ही कोई अकेली महाविद्या श्रीविद्या का फल ही देती है !
यदि कोई जीव किसी एक शक्ति या महाविद्या की साधना को ही श्रीविद्या साधना मानता है तो सम्भवतः यह उसके जीवन की ऐसी त्रुटि हो सकती है जिसकी वह कभी भी प्रतिपूर्ति नहीं कर सकेगा ! षोडशी व त्रिपुरसुन्दरी महाविद्या की दीक्षा ले या देकर श्रीविद्या साधना के भ्रम में उन्मत्त विद्वानजन यहां पर यह भी ध्यान दें कि जिस प्रकार एक स्त्री एक ही समय पर बहन, पुत्री, पत्नी व माँ होने का धर्म निभा सकती है ठीक उसी प्रकार से ये महाविद्याएं भी एक ही समय पर पृथक पृथक व पात्रतानुसार प्रभाव प्रदान करने में सर्वसमर्थ हैं, क्योंकि महाविद्या साधना भौतिक पूर्ति की साधना होती है और श्रीविद्या साधना विशुद्ध आध्यात्मिक साधना होती है, तो एक जैसा फल कैसे मिलेगा ???
विवेकान्ध व तर्कशास्त्री गण ध्यान दें कि अर्थ के बिना काम कभी पूर्ण नहीं होता है, और धर्म के बिना मोक्ष काली कमली वाले के अन्नक्षेत्र के भण्डारे में नहीं बंटता है । इसीलिए मूल “श्रीविद्या साधना” ही सर्वोच्च है क्योंकि इसमें सबसे पहले धर्म पुरुषार्थ को ही साधना होता है, और धर्म युक्त अर्थ से काम के समस्त दैहिक, दैविक व भौतिक ऐश्वर्यों को भोगता हुआ निष्पाप प्राणी मोक्ष का अधिकारी तो स्वतः ही होता है ।
“श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा” के अतिरिक्त यदि इस संसार में श्रीविद्या साधना का कोई भी अन्य विधान पाया जाता है तो निश्चित ही वह इस मूल सर्वोपरि विद्या में अतिक्रमण है !
(यह लेख श्री नीलकंठ गिरी जी महाराज द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश है जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है, अतः कोई भी संस्था, संस्थान, प्रकाशक, लेखक या व्यक्ति इस लेख का कोई भी अंश अपने नाम से छापने या प्रचारित करने से पूर्व इस लेख में छुपा लिए गए अनेक तथ्यों के लिए शास्त्रार्थ व संवैधानिक कार्यवाही के लिए तैयार रहना सुनिश्चित करें !)