ब्रह्मविद्या साधना इस संसार की सबसे अधिक दुरूपयोग की जाने वाली किन्तु सर्वोच्च आध्यात्मिक साधना है !
ब्रह्मविद्या साधना का मूल परिचय :- ब्रह्मविद्या साधना पुर्णतः आध्यात्मिक साधना है, तथा यह साधना आध्यात्म विज्ञान की सर्वोच्च दो साधनाओं में से एक साधना है ! इस सम्पूर्ण श्रृष्टि व ब्रह्माण्ड चक्र में समस्त रूपों व अवस्थाओं में केवल पांच तत्व और शक्ति ही सर्वत्र विद्यमान हैं ! यह सम्पूर्ण श्रृष्टि व ब्रह्माण्ड चक्र तथा श्रृष्टि व ब्रह्माण्ड चक्र में स्थित जड़-चेतन सब कुछ केवल पांच तत्वों और शक्ति का ही सुनिश्चित अनुपात में मिश्रित मायाजाल है ! तथा इस सम्पूर्ण श्रृष्टि व ब्रह्माण्ड चक्र की समस्त अवस्थाओं, व्यवस्थाओं, शक्तियों व समस्त ज्ञान विज्ञान के सर्वोच्च गहन मूल केन्द्रबिन्दु को आध्यात्म विज्ञान कहा जाता है, तथा यह ब्रह्मविद्या साधना उस आध्यात्म विज्ञान का ही वाम (यहां वाम का अर्थ वाममार्ग से नहीं बांया भाग से है) भाग है जो कि पूर्ण रूप से शक्ति का अधिकार व प्रभावक्षेत्र होने के कारण “ब्रह्मविद्या” कहलाता है, तथा इस साधना की अधिष्ठात्री सम्पूर्ण श्रृष्टि ब्रह्माण्ड चक्र की स्वामिनी एवं समस्त चराचर में आत्मा, संज्ञा, चेतना, क्षमता आदि अदृश्य अवस्थाओं में सर्वत्र विद्यमान तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों की स्वामिनी स्वयं आद्या शक्ति “मूल प्रकृति” हैं, जो कि स्वयं सदैव शुक्ष्म रूप में अदृश्य रहकर तत्वों के माध्यम से क्रियाओं को सम्पन्न किया करती हैं ! जबकि आध्यात्म विज्ञान का दक्षिण (दांया) भाग तत्वों का अधिकार व प्रभावक्षेत्र होने के कारण ब्रह्मविद्या कहलाता है !
इस साधना के लाभ :- ब्रह्मविद्या साधना पुर्णतः आध्यात्मिक साधना है, तथा यह साधना आध्यात्म विज्ञान की सर्वोच्च दो साधनाओं में से एक साधना है ! धर्म, न्याय व संयमहीन भौतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के सिद्धान्त के विपरीत प्रकृति, धर्म व न्याय के अनुकूल रहकर आत्मोत्थान करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हेतु यह दीक्षा लेकर साधना संपन्न कर लेने से साधक को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों की क्रमशः प्राप्ति होती है, तथा इस सर्वोच्च शक्ति का साधक इस सर्वोच्च साधना के परिणाम स्वरूप श्रृष्टि – उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड, समस्त विद्याओं, महाविद्याओं, तन्त्र व विज्ञान के समस्त गुप्त रहस्यों को जानते हुए धर्म, न्याय व संयम से परिपूर्ण होकर समस्त प्रकार के धन, धान्य, यश, कीर्ति, सुख, समृद्धि, आरोग्य, ऐश्वर्य, विद्याओं, सोलह कलाओं, अष्ट सिद्धि, नव निधि सहित समस्त भौतिक सर्वैश्वर्यों तथा विशेषकर राजसुख व शासन सत्ता को अवश्य भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है !
यह साधना केवल भौतिक संसाधनों या भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति मात्र के लिए सम्पन्न नहीं की जा सकती है, यह साधना केवल समस्त पाप/पुण्य कर्मों को एक विशेष सन्तुलन में प्रसन्नतापूर्वक एक साथ भोगते हुए कर्मबन्धनों से विमुक्त होते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों सहित आध्यात्म विज्ञान की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के निमित्त ही सम्पन्न की जा सकती है ! जिससे साधक को आध्यात्मिक पवित्रता से युक्त असीमित आर्थिक, भौतिक, आध्यात्मिक व दैवीय शक्तियों व समृद्धि की प्राप्ति होती है, जिसके परिणाम स्वरूप समस्त कर्म भोगों व ऐश्वर्यों के भोग सम्पन्न होने तक साधक की आयु भी उसके “भाग्य के विपरीत” अनिश्चित कालीन हो जाती है, क्योंकि समस्त कर्मबन्धनों को भोगकर उनसे मुक्त हुए बिना किसी भी प्रकार से चतुर्थ पुरुषार्थ “मोक्ष” प्राप्त नहीं हो सकता है, चतुर्थ पुरुषार्थ “मोक्ष” तो तभी प्राप्त हो सकता है जब कोई कर्मबन्धन भोगने के लिए शेष न रहे ! और ब्रह्मविद्या के नियमानुसार विधिवत् ब्रह्मविद्या में दीक्षित होकर विधिवत् ब्रह्मविद्या साधना सम्पन्न करने वाले साधक के इसी जन्म में समस्त कर्मबन्धनों को व ब्रह्मविद्या के प्रभाव को भोगे बिना मृत्यु भी नहीं हो सकती है !
विधिवत् ब्रह्मविद्या में दीक्षित होकर विधिवत् ब्रह्मविद्या साधना को सम्पन्न करने पर वह सब कुछ प्राप्त होता है जिसकी आप कभी कल्पना भी नहीं कर पाए होंगे, किन्तु जितना कुछ भी आध्यात्मिक पवित्रता से युक्त असीमित आर्थिक, भौतिक, आध्यात्मिक व दैवीय शक्तियों व समृद्धि की प्राप्ति होती है वह ब्रह्मविद्या के प्रभाव से केवल उसके अपने ही नियम, सिद्धांतों के द्वारा व उसके अपने ही नियम, सिद्धांतों के अधीन ही प्राप्त होता है, अर्थात ब्रह्मविद्या के प्रभाव क्षेत्र में मनुष्यों द्वारा निर्धारित नियम व सिद्धान्त प्रभावी नहीं होते हैं ! जो प्राणी विधिवत् ब्रह्मविद्या में दीक्षित होकर विधिवत् ब्रह्मविद्या साधना को सम्पन्न नहीं कर लेता है, उस पर ब्रह्मविद्या के प्रभाव से होने वाले लाभ का नियम प्रभावी नहीं होता है !
अतः जो सज्जन ब्रह्मविद्या साधना को केवल भौतिक संसाधनों, भौतिक उद्देश्यों, मारण, मोहन, वशीकरण आदि तथा प्रकृति, धर्म व न्याय के विरुद्ध कार्यों, गौण व निम्न उद्देश्यों की पूर्ति मात्र के लिए सम्पन्न करना चाहते हैं, उनका उद्देश्य व साधना का चयन दोनों ही असंगत हैं ! ऐसे सज्जनों को सक्षम साधकों से विचार विमर्श या प्राचीन तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर अपनी जानकारियों को स्वस्थ करना चाहिए ! क्योंकि ऐसे गौण व निम्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तत्सम्बन्धी महाविद्या, ऐन्द्रजालिक, तान्त्रिक या अन्य साधना अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते हैं !
ब्रह्मविद्या (श्री महात्रिपुरसुन्दरी) चारों युगों में वन्दित एवं पूजित रही हैं। यह विद्या सत्युग में इन्द्रादि देवताओं के समक्ष उमा-हेमावती के रूप में प्रकट हुई थी। त्रेतायुग में यही ब्रह्मविद्या महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम तथा विदेह जनक द्वारा प्रकट हुई थी। महर्षि वशिष्ठ का महाचीन देश में जाकर चीनाचार द्वारा उपासना करना, विश्वामित्र रचित गायत्री स्तवराज, परशुराम का दशखन्डी कल्पसूत्र तथा राजा जनक की शक्ति उपासना सम्बन्धी अनेकों आख्यान उपलब्ध हैं। द्वापर युग में श्री कृष्ण द्वारा ब्रह्मविद्या प्रकाशित की गई थी। राधातंत्र, देवीभागवत तथा महाभारत में शक्ति उपासना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। श्री कृष्ण द्वारा युद्ध-विजय हेतु अर्जुन को मॉं दुर्गा (भद्रकाली) की स्तुति करने का आदेश दिया गया था ।
“शुचिर्भूत्वा महाबाहो-संग्रामाभिमुख स्थित: पराजयाय शत्रूणां-दुर्गा स्तोत्र मुदीरय।
इस आदेश का पालन करते हुए अर्जुन रथ से उतर गए और उन्होंने 78 दिव्य नामों तथा उपाधियों से सम्बोधित करते हुए श्री दुर्गा की दिव्य स्तुति की थी। इस स्तुति का प्रथम श्लोक है –
“नमस्ते सिद्ध सेनानि–आर्ये मन्दर वासिनि कुमारि कालि कापालि–कपिले कृष्ण पिंगले”
इस स्तुति से प्रसन्न होकर श्री दुर्गा ने अर्जुन को युद्ध में अजेय होने का वरदान दिया था ।