साधनाकाल में साधक के लिए अनिवार्य कृत्य – अकृत्य नियम क्या हैं ?
- श्री ज्योतिर्मणि पीठ पर दीक्षा/साधना काल में साधना सम्बन्धी सभी जानकारियों पर विचार विमर्श व विसंगतियों के निराकरण हेतु विचार विमर्श व चर्चा करने हेतु आप पुर्णतः स्वतन्त्र हैं, अतः इस समय पर अपने विषय को स्वतंत्रता पूर्वक कहें तथा साधना विधि इत्यादि जानकारियों व उत्तर को ध्यानपूर्वक सुने अथवा लिख लें ! किन्तु फोन, ईमेल, व्हाट्सअप आदि माध्यमों से आपको साधना सम्बन्धी कोई भी जानकारियां नहीं दी जा सकेंगी !
यदि साधना में कोई व्यवधान उत्पन्न हो रहा हो तो केवल उस स्थिति में ही फोन पर सीधे उस विषय पर ही निराकरण के निमित्त संक्षिप्त वार्ता की जा सकती है, किन्तु विस्तृत वार्ता के लिए आपको श्री ज्योतिर्मणि पीठ पर स्वयं उपस्थित होना होगा !
- 1 :- साधनाकाल में गुरु प्रदत्त नियमों का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए, क्योंकि गुरु द्वारा प्रदत्त नियम शिष्य के लिए बन्धन न होकर साधनाकाल में आने वाली कठिनाईयों व अवरोधों के निराकरण का गुप्त सूत्र होते हैं !
- 2 :- साधना के लिए गुरु द्वारा जो भी अनिवार्य योग्यताएं मांगी गई होती हैं, उनमें पुर्णतः सक्षम हुए बिना कभी भी साधना प्रारम्भ नहीं करनी चाहिए !
- 3 :- साधनाकाल में शरीर पर साबुन, शैम्पू, तेल, क्रीम, पाउडर, इत्र आदि का प्रयोग व क्षौर कर्म करना निषेध है !
- 4 :- साधनाकाल में दिन के समय सोना निषेध है !
- 5 :- साधनाकाल में झूठा भोजन करना, झूठे हाथों से किसी अन्य को भोजन देना, झूठा “खाद्य” बचाकर रखना व उसको बाद में खाना, झूठे हाथों से झूठे पात्रों को धोने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य करना या किसी अन्य वस्तु को हाथ लगाना निषेध है !
- 6 :- साधनाकाल में कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से झूठ, छल, कपट, क्रोध, ईर्ष्या, ग्लानी, वाद-विवाद व दैत्यत्व को उत्पन्न व प्रदर्शित करना निषेध तथा स्वयं में स्वच्छता, पवित्रता व देवत्व को उत्पन्न करना अनिवार्य है !
- 7 :- साधनाकाल में बिना सिलाई व बिना टांका लगे हुए लाल, पीले या श्वेत रंग के केवल एक ही वस्त्र को पहनकर साधना में बैठना अनिवार्य है, तथा उस वस्त्र को पहनकर शौचालय, मूत्रालय में जाना निषेध है !
- 8 :- साधनाकाल में आसन पर बैठने के बाद कर्म संपन्न होने तक न तो आसन बदलें और न ही आसन त्यागें (आसन स्थिर न रखने से साधना की ऊर्जा का वर्तुल खण्डित हो जाता है और कोई लाभ नहीं मिलता है) .
- 9 :- साधनाकाल में माला द्वारा जपने वालों को “जप संख्या” व बिना माला के मानसिक जप करने वालों को “मानसिक जप के समय” को किसी दिन अधिक व किसी दिन कम करना निषेध है !
- 10 :- साधनाकाल में साधना करने के स्थान, साधना करने वाले व्यक्ति व साधना करने के समय का परिवर्तन करना निषेध है !
- 11 :- साधनाकाल में उस साधना के सम्बन्ध में गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों के अतिरिक्त अपने असीमित ज्ञान के भण्डार का प्रयोग करना निषेध है !
- 12 :- साधनाकाल में प्रतिदिन साधना करने के उपरान्त अपने कुलगुरु या उस मन्त्र की दीक्षा देने वाले गुरु अथवा मन्त्र के देवता को वह जप व साधना का कर्म समर्पित करना अनिवार्य है ! साधना के प्रथम दिन जिसको भी वह जप व साधना का कर्म समर्पित किया जायेगा साधना सम्पन्न होने तक उसको ही समर्पित किया जायेगा ! (गुरु, कुलगुरु व देवता इनमें से जो पुलिंग हो उसके दाहिने हाथ में व जो स्त्रीलिंग हो उसके बाएँ हाथ में समर्पित करना चाहिए)
- 13 :- साधनाकाल में अंडा, मांस, मदिरा, गुटखा, पान, सिगरेट, लहसुन, प्याज बाजार में उपलब्ध रस, पेय पदार्थ, नमकीन, बिस्कुट, ब्रेड आदि खाद्य आदि का प्रयोग व बाहर होटल, ढाबे आदि का खाद्य ग्रहण करना निषेध है, यथासम्भव हो सके तो अपना भोजन स्वयं पकाने का कष्ट करें, अन्यथा (आपका आहार बनाने वाले व्यक्ति की आहार बनाते व परोसते समय जैसी मनः स्थिति होगी, वह अपनी उसी मनः स्थिति को ही आपके सामने भोजन के रूप में परोसेगा, जिसे ग्रहण करने पर आपकी मनः स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी, और इससे आपकी साधना में निश्चित ही व्यवधान आ सकता है) .
- 14 :- साधनाकाल में झूठ, छल, क्रोध व मैथुन सम्बन्धी कर्म, विचार, गीत, संगीत, चलचित्र और मिथ्या वार्तालाप से भी सर्वथा दूर रहें (झूठ, क्रोध व मैथुन सम्बन्धी कर्म, विचार, गीत, संगीत और मिथ्या वार्तालाप के परिणाम स्वरूप शरीर से ऊर्जा/वीर्य का कण मात्र भी दूषित या क्षरण हो जायेगा तो साधना उसी समय खण्डित हो जाती है, व साधना पुनः प्रथम दिन से प्रारम्भ करनी होती है) !
- 15 :- साधनाकाल में अपनी असक्षमता, असफलता, कठिनाईयों व हीनता को अपने गुरु अथवा गुरु द्वारा निर्धारित सक्षम व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य साधनारत साधक के समक्ष व्यक्त करना निषेध है ! (इससे अन्य साधनारत साधक पर मानसिक दुष्प्रभाव पड़कर उसकी साधना प्रभावित हो सकती है)
- 16 :- अपने गुरु के अतिरिक्त अपनी साधना की विधि, अनुभव व मन्त्रों को कभी भी किसी के सम्मुख कहना या लिखना निषेध है ! यदि आपने किसी मन्त्र को किसी अपात्र के सम्मुख या सभा (5 या इससे अधिक व्यक्ति) में उच्चारित कर दिया, और गुरु द्वारा प्रदत्त साधना विधि व मन्त्र की गोपनीयता को किसी भी प्रकार से भंग कर दिया तो निश्चित ही वह मन्त्र आपके अपने लिए कुछ समय या सदैव के लिए भी कीलित हो सकता है ! केवल यज्ञ के समय मन्त्रों का उच्चारण किया जा सकता है, किन्तु गुरु प्रदत्त मन्त्र का उच्चारण तब भी मानसिक ही किया जायेगा और स्वाहाकार को ही मुख से उच्चारण करके बोला जा सकता है !
यही कारण है कि अधिकतर साधक सतत साधना तो करते रहते हैं लेकिन उनको साधना का कोई परिणाम नहीं मिलता है, क्योंकि वह मनमुखी लोग साधना विधियों, मन्त्रों व नियमों को अपने अधीन मानकर या जानकारी के अभाव में उनका उल्लंघन, नियमों की अनदेखी, गोपनीयता का ह्रास और जहाँ-तहां मन्त्रों को लिखते या बोलते हुए पाए जाते हैं, फेसबुक जैसी सार्वजनिक जगह पर ऐसे स्वयंसिद्धपुरुष सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं, और ऐसे लोगों को कुछ समझाना चाहो तो ये उल्टा ज्ञान का पाठ पढ़ाने बैठ जाते हैं, क्योंकि पुस्तकें पढ़-पढ़कर इनका ज्ञान का भण्डार “ओवर फ्लो” जो हुआ रहता है !
- 17 :- आपके द्वारा प्रयोगार्थ सामग्रियों में शुद्धता, गुणवत्ता व अनुपात की अवहेलना किये जाने तथा अपने गृहक्षेत्र में साधना करने, दीक्षा लिए बिना साधना करने, प्रतिमा द्वारा दीक्षा लेकर साधना करने, साधना की विधि में अपने अनुसार परिवर्तन करने, गुरु आज्ञा की अवहेलना करने, साधना/साधना की विधि व मन्त्र की गोपनीयता भंग करने, मन्त्र/मन्त्र के देवता/साधना की विधि व गुरु पर आस्था न होने, तथा साधना के नियमों की अवहेलना करने पर साधना का परिणाम न मिलने या किसी भी अनापेक्षित परिणाम के आ जाने पर अपने गुरुजनों से प्रश्नोत्तर करने का अधिकार नहीं रहता है ! अपनी त्रुटियों को सुधारकर पुनः साधना करने का प्रयास करना चाहिए !
अतः अपनी जिस बुद्धिमत्ता से स्वयं को व्यवस्थित नहीं रख सकते हैं, उस बुद्धिमत्ता से अपने गुरुजनों, परिजनों या अन्य किसी के स्वाध्याय, साधना, चित्त व जीवन में व्यवधान देने से उत्तम है की अपनी बुद्धिमत्ता को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए या फिर उसमें सकारात्मक सुधार सहित वृद्धि करनी चाहिए !
- 18 :- सफलता की कुन्जी :- गुरु द्वारा दी गयी दीक्षा में गुरु की प्राणऊर्जा से युक्त शक्तिबीज – गुरु की आज्ञा में शिष्य की परीक्षा – परीक्षा में शिष्य की क्षमताओं की पुष्टि व वृद्धि – क्षमताओं की पुष्टि व वृद्धि में शिष्य के सफल हो जाने पर शक्तिबीज से स्वतः ही असीमित ऊर्जा ऊत्सर्जन प्रारम्भ हो जाता है और उस ऊर्जा के साथ जाप्य मन्त्र व यज्ञादि की ऊर्जा का सामंजस्य स्थापित होकर साधना अपने लक्ष्य की ओर गति प्राप्त करने लगती है ! वहीँ परीक्षा में असफल हो जाने पर शक्तिबीज से ऊर्जा ऊत्सर्जन प्रारम्भ नहीं होता है और जाप्य मन्त्र व यज्ञ साधना की भी कोई गति नहीं बन पाती है, इसलिए गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि है !!!
- 19 :- साधना व गुरु के नियमों, सिद्धान्तों व क्रियाओं में समझौतावादी, स्वेच्छाचारी, अतिक्रमणकारी व संक्रमणकारी साधक तो इस पृथ्वी पर साक्षात् परमब्रह्म स्वरूप होते हैं, इनको कुछ भी करना या न करना निषेध नहीं होता है ! और आर्थिक, मानसिक हानि, असंख्य मनोरोगों, काल्पनिक सिद्धियों व भ्रांतियों से ये सदैव परिपूर्ण रहते हैं, जिसको ये अन्य लोगों के साथ बांटकर उनको भी कृतार्थ करके उनपर अपनी कुकृपा दृष्टि बनाए रखते हैं !