श्री ज्योतिर्मणि पीठ के संस्थापक स्वामी श्री नीलकण्ठ गिरी जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर के एक गाँव मुरलीवाला में सनातनधर्मी परिवार में हुआ था | बचपन में उनका नाम जनार्दन रखा गया था |
वैराग्य : स्वामी श्री नीलकंठ गिरी जी महाराज को धर्म-आध्यात्म, गहन साधनाओं व सत्य की खोज में रहने की बचपन से ही आदत थी, इसी क्रम में उन्होंने 9 वर्ष की आयु से सामान्य विद्यालयी शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ ही कालागढ़ के सिद्ध योगी श्री भंवर नाथ जी महाराज व जूना अखाड़े के श्री संतोष गिरी जी महाराज से यौगिक व साधनात्मक क्रियाएं सीखनी प्रारम्भ कर दी थी !
तदुपरांत उन्होंने उज्जैन (मध्य प्रदेश) के सिद्ध शक्तिपीठ माता हरसिद्धि मन्दिर परिसर में एकांतवासी परम तपस्वी सिद्ध योगी श्री भगवान गिरी जी महाराज से ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण की और उनके निर्देशन में सामान्य विद्यालयी शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ धर्म-आध्यात्म, पराविज्ञान, मनोविज्ञान, योग, तन्त्र व मन्त्र की अनेक गहनतम साधनाए सीखी और उन साधनाओं मे पारंगत हुए |
ब्रह्मचर्य दीक्षा से युक्त रहकर गुरूजी ने अपने मार्गदर्शक व प्रेरक श्री भगवान गिरी जी महाराज के निर्देश पर परम तपस्वी स्वामी श्री हनुमान गिरी जी महाराज (हनुमानचट्टी बद्रीनाथ), परम तपस्वी स्वामी श्री प्रवृज्यानंद जी महाराज (सतोपंथ, बद्रीनाथ), स्वामी श्री चन्द्र गिरी जी महाराज (केदारनाथ), इस लोक में मृतसंजीवनी विद्या के अद्वितीय प्रकाण्ड ज्ञाता परम तपस्वी स्वामी श्री मंगलानन्द सरस्वती जी महाराज “त्रिजटा” (भैरव गुफा, नैनबाग), परम तपस्वी सिद्धयोगी स्वामी श्री प्रकाश पुरी जी महाराज (गुडगाँव), टिहरी गढ़वाल नरेश की आराध्या कुलदेवी भगवती राजराजेश्वरी व सत्यनाथ भैरव के दत्तात्रेय परम्परा में श्रीविद्या उपासक सिद्धयोगी श्री शीलनाथ जी एवं श्री बसन्त नाथ जी महाराज (देवलगढ़, श्रीनगर गढ़वाल), ह्यग्रीव सम्प्रदाय की “देव्यौध कपिलनाथी परम्परा” में कालीकुल में श्रीविद्या उपासक परम तपस्वी सिद्धयोगी श्री निश्चलानन्द नाथ जी महाराज (तपोवन, गौमुख) आदि हिमालय के स्थाई तपस्वी दिव्य सिद्ध महापुरुषों से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड हिमालय में भटकते हुए अनेक साधनाएं व शिक्षा दीक्षाएं ग्रहण कर साधनाएं संपन्न कर अनेक सिद्धियां प्राप्त की, किन्तु आध्यात्म विज्ञान के सर्वोच्च सूत्र “गुप्तगायत्री, श्रीविद्या एवं ब्रह्मविद्या” को प्राप्त करने की तृष्णा शान्त नहीं थी, और इस संसार में गुप्तगायत्री विधान के एकमात्र जीवित विशेषज्ञ सिद्ध योगीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी श्री कैवल्यानन्द जी महाराज श्री के सम्मुख अपनी योग्यता प्रदर्शित करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील थे !
अंततः विजयदशमी 1995 को वह दिन आ ही गया जिसके लिए वह वर्षों से हिमालय में भटकते थे, सन 1995 के शारदीय नवरात्र की नवमी को गुरूजी प्रत्येक वर्ष की भांति बद्रीनाथ में माणा के पास वसुधारा पर यज्ञ कर रहे थे, तभी पूर्णाहुति के समय सिद्ध योगीश्वर स्वामी श्री कैवल्यानन्द जी महाराज आए और गुरूजी को अपने साथ सतोपन्थ में अपनी गुफा में अपने साथ ले गए और गुप्तगायत्री की दीक्षा प्रदान करने की अनुमति प्रदान कर दी ! गुरूजी ने इसके अगले दिन विजयदशमी को ह्यग्रीव सम्प्रदाय की “देव्यौध कपिलनाथी परम्परा” में श्रीविद्या एवं ब्रह्मविद्या की मूल जननी गुप्तगायत्री के माध्यम से श्रीविद्या के चारों कुलों श्रीकुल (हादी), काली कुल (कादी), त्रिपुराकुल (सादी) व ताराकुल को पूर्ण रूप से सिद्ध करने वाले भूमण्डल पर एकमात्र शेष परम उपासक परम तपस्वी सिद्ध योगीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी श्री कैवल्यानन्द जी महाराज “कौलिक” (सतोपंथ, बद्रीनाथ) जी से “श्रीविद्या के चारों कुल व चारों कुलों की षोडश महाविद्याओं तथा ब्रहमविद्या” की मूल जननी गुप्तगायत्री की दीक्षा को प्राप्त कर आध्यात्म विज्ञान के सर्वोच्च सूत्र को प्राप्त किया, और स्वामी श्री कैवल्यानन्द जी महाराज श्री की आज्ञा से वसुधारा के सम्मुख श्रीकुण्ड के निकट एक गुफा में रहकर श्रीविद्या व ब्रह्मविद्या के मूल स्रोत्र “गुप्तगायत्री” की साधना को संपन्न कर गुप्तगायत्री से सृजित हुई श्रीविद्या के श्रीकुल (हादी विद्या) में विधिवत् प्रवेश किया |
किन्तु इसी मध्य गुरूजी के मुख्य मार्गदर्शक व प्रेरक सिद्ध योगी श्री भगवान गिरी जी महाराज का महानिर्वाण हो जाने के उपरान्त गुरूजी ने आगे की शेष बची अध्यात्मिक व साधनात्मक यात्रा के लिए अल्पायु में ही गृहत्याग कर दिया व इसके बाद वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही घर से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध रखा | गुरूजी ने फाल्गुन महाशिवरात्रि 1996 के दिन श्री नीलकंठ महादेव स्थित सिद्ध बाबा के मन्दिर में स्वामी श्री प्रीतम गिरी जी महाराज की कृपा से सन्यास जीवन का प्रारम्भ किया ओर स्वामी श्री प्रीतम गिरी जी महाराज के सानिध्य में मानव सेवा करते हुए तीन वर्ष तक सन्यास की शिक्षाएं व पंकजा नदी के उत्तरमुखी संगम पर गुप्तगायत्री से सृजित श्रीविद्या के श्रीकुल (हादी विद्या) की साधना को संपन्न कर श्रीविद्या के काली कुल (कादी विद्या) में विधिवत् प्रवेश किया था !
गुरूजी सन 1998 के हरिद्वार महाकुम्भ में स्वामी श्री प्रीतम गिरी जी महाराज व समस्तीपुर के स्वामी श्री कैलाश गिरी जी महाराज की परम अनुकम्पा से श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज श्री से विधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण के रूप होकर पूर्ण रूप से सन्यासी बन परमहंस परिव्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी नीलकण्ठ गिरी जी महाराज कहलाए |
सन्यास ग्रहण के उपरान्त गुरूजी ने श्री नीलकंठ महादेव स्थित सिद्ध बाबा के मन्दिर, लक्ष्मणझूला से डेढ़ किमी ऊपर जंगल में स्थित गणेश गुफा व मणिकूट पर्वत के शिखर पर स्थित सिद्धों के कोट में साधनात्मक समय व्यतीत किया | तदुपरान्त 2001 में प्रयाग महाकुम्भ में सम्मिलित होने के उपरान्त अखाड़े की जमात में रहने की अनिवार्यता व साथ ही अखाड़े में साधनानुकूल एकान्त परिवेश नहीं होने के कारण गुरूजी के सम्मुख साधनाओं को निरंतर रखने की विडंबना उत्पन्न होने पर उन्होंने मढ़ी के कोठारी जी श्री दिगम्बर गजानन गिरी जी महाराज से अनुमति लेकर एक माह के अन्तराल में ही अखाड़े की मर्यादाओं को भी त्याग दिया, ओर मणिकूट पर्वत के शिखर पर जंगल में स्थित सिद्धों के कोट में अपने जीवन को पूर्ववत् स्वछंद, साधनाओं व एकांतवास में पुनः स्थित किया !
श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा पीठ की स्थापना :- गुरूजी भाद्रपद सन 1999 में मणिकूट पर्वत के शिखर पर जंगल में स्थित चौरासी सिद्धों, सप्तऋषियों व माता सती अनुसूया के तपस्थल जिसे पुराणों में सिद्ध कोट, सिद्धों का कोट व सिद्धकूट तथा स्थानीय भाषा में “मणिकूट कोठामा” के नाम से भी जाना गया है, वहां पर पर्णकुटी बनाकर साधना करने लगे, तदन्तर अनेक शूक्ष्म अनुभूतियों के बाद सन 2001 में निकटवर्ती ग्राम भादसी के समस्त निवासियों व श्री जगत सिंह राणा जी के विशेष सहयोग से अमृतोदक कुंड के उत्तर दिशा में मन्दिर निर्मित कर वहां भूमि में स्थित अनादिकल्पेश्वर श्री नीलकंठ भगवान के राजराजेश्वरी मुद्राओं से युक्त स्वयंभूः शिवलिंग को पुनर्स्थापित कर श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा पीठ की पुनर्स्थापना की व सन 2007 तक वहां पर एकांत साधनारत रहे !
श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा सेवा समिति की स्थापना :- गुरूजी ने आश्विन सन 2007 में साधनहीन व कमजोर वर्ग की सहायता के उद्देश्य से “श्री ज्योतिर्मणि महायोगमुद्रा सेवा समिति” नामक संस्था की स्थापना की, यह संस्था क्षेत्र के अनेक असहाय व गंभीर रोगग्रस्त लोगों के रोग का सक्षम चिकित्सालय में निदान कराने के साथ ही बाढ़ व आपदा ग्रस्त क्षेत्रों के पीड़ितों को संस्था सदस्यों द्वारा संग्रह की गई राहत सामग्री से भोजन, औषधि व अन्य हरसम्भव आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराकर उनका सहयोग करती है, तथा अनेक आर्थिक रूप से कमजोर व अनाथ विद्यार्थियों का सम्पूर्ण शैक्षिक भार वहन करती आ रही है !
श्री ज्योतिर्मणि पीठ की स्थापना :- कार्तिक सन 2007 में मणिकूट पर्वत क्षेत्र में पौराणिक सिद्धपीठ श्री नीलकंठ महादेव जी के मन्दिर के समीप ग्राम तोली नीलकंठ निवासी श्री राजेन्द्र सिंह चौहान जी व उनके पिताजी श्री बलबीर सिंह चौहान जी के द्वारा गुरूजी को निवास हेतु भूमि दान की गई, उस भूमि पर सन 2009 में गुरूजी के शिष्य सुरेश कुमार व सन्दीप सिंह के सहयोग से बसन्त पंचमी के स्वयंसिद्ध योग में “महाभद्र नवमणि ब्रह्मपंचक पीठिका” पर 15X15X6.5 इंच प्रमाण में 36.9 किलोग्राम भार वाले ठोस अष्टधातु से निर्मित श्रीविद्या की अधिष्ठात्री भगवती महात्रिपुरसुन्दरी श्री ललिता राजराजेश्वरी के निवास रूपी उर्ध्वपृष्ठीय हादी व कादी विद्यौन्मुखी “श्रीयन्त्र” को प्रतिष्ठित कर “श्री ज्योतिर्मणि पीठ” की स्थापना कर भगवती मूलसृष्टयाधिष्ठात्री त्रिपुरेश्वरी के श्री चरणों में एकान्त साधना करते हुए निवासरत हैं !