सभी धर्म व सम्प्रदायों में गुरु का स्थान सर्वोच्च है ! लेकिन हमारे सनातन धर्म के धर्मगुरुओं, महागुरुओं और सिद्धगुरुओं का स्थान नीति, धर्म, शास्त्र, श्रृष्टि के नियम और ईश्वर से भी सर्वोच्च है, क्योंकि ये वो सब करने में सक्षम हैं जो कि नीति, धर्म, शास्त्र, श्रृष्टि के नियम और ईश्वर भी नहीं कर सकता है !
हमारे सनातन धर्म के सिद्धान्तहीन, अपरिपक्व, अनुभवहीन, अहंकारोपासक, समझौतावादी किन्तु पुस्तकीय व तार्किक ज्ञान से संपन्न अध्यात्मिक गुरुओं की बड़ी फौज है, जहाँ यह भी जानना दुश्वार है कि कौन सन्यासी है ? कौन गृहस्थ है ? कौन ब्राह्मण है ? कौन कथावाचक प्रवचनकर्ता है ? किसी ने कुछ सीखा-साधा भी है या नहीं ? या डिग्री कालेज में शास्त्री की शिक्षा लेते हुए ही रात को हिमालय इनके कक्ष में इनकी तपस्या कराने आया करता था ? कुछ पता नहीं ? क्योंकि सब के सब एक जैसा ही “सन्यासी वाला” भेष धर कर बैठे हैं और पुस्तकें पढ़ पढ़कर प्रवचनों द्वारा प्रतियोगिता में जुटे हुए हैं कि “मैं ही सर्वज्ञ हूं” !!!
ओर इनकी पहचान बस तब होती है जब ये मंच से अलग अपनी पत्नी व संतति के साथ होते हैं, ओर आने वाले कल के प्रवचन की तैयारी करते हुए होते हैं ! अन्यथा ये सब हिमालय (अर्थात किसी बड़े नगर के महंगे क्षेत्र में भव्य भवन) से निकलकर वायुमार्ग (वायुयान अथवा महंगी गाड़ी) से प्रवचन देने आते हैं और वापस उसी हिमालय में ही अपनी पत्नी व संतति के साथ तपस्या करने छुप जाते हैं ! इतना ही नहीं जिनको १०८, १००८, अवधूत, जगद्गुरु, स्वामी, संत, आचार्य ओर परमहंस जैसी श्रेष्ठ निवृत्तिसूचक उपाधियों के अर्थ का ही ज्ञान नहीं वो निरे गृहस्थ, निगुरे ओर कथावाचक इन उपाधियों से स्वअलंकृत हुए बैठे हैं, और इनमें बहुत सारे तो भूत, प्रेत, नजर झाड़ने वाले ओझा, सामान्य ऊर्जा विज्ञान के चिकित्सक (Reiki Healer) भी सम्मिलित हैं जो इन श्रेष्ठ निवृत्तिसूचक उपाधियों से स्वअलंकृत हुए बैठे हैं !
इन संतवेषधारी व्यवसायिक महापुरुषों ने अपने व्यवसाय की वृद्धि करते हुए भोले-भाले आम जनमानस को ठगने व अधर्म ओर पतन की खाई में धकेलने के नए नए सूत्र भी विकसित किये हुए हैं, जैसे कि :-
- समूह में दीक्षा प्रदान करना (जो कि शास्त्रों में पुर्णतः निषेध है, व ऐसा करने वाला गुरु त्याज्य है) शास्त्राज्ञा व सिद्धान्त के अनुसार समूह में केवल ज्ञान व उपदेश दिया जा सकता है किन्तु न तो इस प्रकार से दीक्षा दी जा सकती है और न ही बीजमन्त्रों का उच्चारण किया या कराया जा सकता है ! इस प्रकार से दीक्षा देने के नाम पर शास्त्र व दीक्षा/साधना के नियम से अनभिज्ञ समाज को मूर्ख बनाकर भोगा अवश्य जा सकता है, जो कि वर्तमान में जहां तहां हो ही रहा है ! क्योंकि भजन, भोजन, गर्भाधान व दीक्षा सदैव व्यक्तिगत ही होते हैं, ये कभी भी सार्वजनिक नहीं हो सकते हैं !
“स्वयंभूः दिव्य महागुरुओं, सिद्धगुरुओं” द्वारा नवसृजित इस “असैद्धान्तिक दिव्य विधि” से दीक्षा लेने वाले सज्जनों की वह दीक्षा पूर्ण नहीं होती है और ना ही उस साधना का कोई प्रतिफल ही साधक को प्राप्त होता है, इस विधि से दीक्षा लेने वाले सज्जनों द्वारा साधना किये जाने पर साधनाकाल अथवा साधना के उपरान्त यदि कुछ भी सकारात्मक घटना या किसी अभीष्ट समस्या का समाधान हो जाता है तो यह मात्र साधक की आस्था, श्रद्धा व सकारात्मकता के परिणाम स्वरूप अथवा मात्र एक संयोग अथवा उस समस्या का स्वतः ही निवृत्त होने का समय होने से होता है ! व इसके साथ ही वह साधक दोबारा भी वह दीक्षा लेने से सदैव के लिए प्रतिबन्धित हो जाते हैं, क्योंकि किसी भी मन्त्र की दीक्षा केवल एक बार ही हो सकती है, चाहे वह दीक्षा सैद्धान्तिक विधि से हो अथवा असैद्धान्तिक विधि से हो !
- दूरभाष यंत्रों/चलचित्र (वीडियो सीडी) या ऑनलाईन इन्टरनेट के माध्यम से दीक्षा प्रदान करना (जो कि शास्त्र सम्मत ही नहीं है, यह शास्त्रों में पुर्णतः निषेध है, ऐसा कराने वाला गुरु व ऐसा करने वाला शिष्य सर्वथा त्याज्य है) सिद्धान्त के अनुसार इन माध्यमों से केवल ज्ञान व उपदेश तो दिया जा सकता है किन्तु न तो इस प्रकार से दीक्षा दी जा सकती है और न ही बीजमन्त्रों का उच्चारण किया या कराया जा सकता है ! शास्त्राज्ञा व सिद्धान्त के अनुसार दीक्षा केवल गुरु सानिध्य में ही प्राप्त हो सकती है, अथवा केवल अतिविषम परिस्थितियों में अत्यन्त संवेदनशील व घातक “प्राणप्रतिष्ठा” के सिद्धान्त के अनुसार ही दी जा सकती है ! इस प्रकार से दीक्षा देने के नाम पर शास्त्र व दीक्षा/साधना के नियम से अनभिज्ञ समाज को मूर्ख बनाकर भोगा अवश्य जा सकता है, जो कि वर्तमान में जहां तहां हो ही रहा है ! क्योंकि भजन, भोजन, गर्भाधान व दीक्षा सदैव व्यक्तिगत ही होते हैं, ये कभी भी सार्वजनिक नहीं हो सकते हैं !
जब दूरभाष यंत्रों/चलचित्र (वीडियो सीडी) या ऑनलाईन इन्टरनेट द्वारा इस सृष्टि का कोई भी देव, दैत्य, नर आदि जीव भोजन, जल आदि कुछ भी आहार नहीं ग्रहण कर सकता है और ना ही गर्भाधान कर सकता है, तो पिछले कुछ वर्षों से केवल हमारे देश व केवल हमारे सनातन धर्म में ही दूरभाष/चलचित्र (वीडियो सीडी) व ऑनलाईन माध्यमों से दीक्षाएं देने का कारोबार किस आधार पर फल फूल रहा है ???
- समूह में बैठे हुए जनमानस को ध्वनि प्रसारक यंत्रों के माध्यम से मन्त्र दीक्षा प्रदान करके उन मन्त्रों का अपने सम्मुख ही अमर्यादित स्वतन्त्र उच्चारण करवाना व अमर्यादित स्वतन्त्र उच्चारण करने की स्वतंत्रता शिष्यों को प्रदान करना (जो कि शास्त्र सम्मत ही नहीं है, यह शास्त्रों में पुर्णतः निषेध है, ऐसा कराने वाला गुरु व ऐसा करने वाला शिष्य सर्वथा त्याज्य है) शास्त्राज्ञा व सिद्धान्त के अनुसार समूह में या ध्वनि प्रसारक यंत्रों के माध्यम से केवल ज्ञान व उपदेश दिया जा सकता है किन्तु न तो इस प्रकार से दीक्षा दी जा सकती है और न ही बीजमन्त्रों का उच्चारण किया या कराया जा सकता है ! शास्त्राज्ञा व सिद्धान्त के अनुसार दीक्षा केवल गुरु सानिध्य में ही प्राप्त हो सकती है, अथवा केवल अतिविषम परिस्थितियों में अत्यन्त संवेदनशील व घातक “प्राणप्रतिष्ठा” के सिद्धान्त के अनुसार ही दी जा सकती है ! इस प्रकार से दीक्षा देने के नाम पर शास्त्र व दीक्षा/साधना के नियम से अनभिज्ञ समाज को मूर्ख बनाकर भोगा अवश्य जा सकता है, जो कि वर्तमान में जहां तहां हो ही रहा है ! क्योंकि भजन, भोजन, गर्भाधान व दीक्षा सदैव व्यक्तिगत ही होते हैं, ये कभी भी सार्वजनिक नहीं हो सकते हैं !
शास्त्राज्ञा व सिद्धान्त के अनुसार केवल सामान्य ऋचाओं, सूक्तों, स्तोत्रों का उच्चारण किया जा सकता है, किन्तु बीजमन्त्रों का व दीक्षा में प्राप्त हुए मन्त्रों का अपने शिष्य को दिक्षादान के अतिरिक्त कभी भी मुख से उच्चारण नहीं किया जा सकता है !
- स्वयं दीक्षा लेकर अपनी साधना पूर्ण किये बिना ही आम जनमानस को दीक्षा प्रदान करना (जो कि शास्त्रों में पुर्णतः निषेध व सर्वथा घृणित कर्म है, व ऐसा करने वाला गुरु/शिष्य सर्वथा त्याज्य है) गुरु ने जो दीक्षा दी है पहले उसकी साधना तो पूरी कर ली जाए, फिर गुरु बनने का आनन्द ही कुछ और होगा (ऐसी ही कुछ दिव्यात्माएं हमारे परिचय क्षेत्र में भी विराजमान होकर आध्यात्म विज्ञान व आध्यात्म जगत को कलंकित कर रही हैं) !
- स्वयं दीक्षा लिए बिना पुस्तकों से पढ़कर आम जनमानस को दीक्षा प्रदान करना (जो कि शास्त्रों में पुर्णतः निषेध व सर्वथा घृणित कर्म है, व ऐसा करने वाला गुरु/शिष्य सर्वथा त्याज्य है) “अभी तो बीज भी नहीं बोया था, फसल बाजार में कैसे आ गई” ??? ये बिना बीज बोई हुई फसलें हैं जिनको खरपतवार कहते हैं, और ये बीज बोई हुई फसल से अधिक अच्छी उगा करती हैं, जब ये बड़ी हो जाती हैं तो इनको उखाड़कर दबा या जला दिया जाता है ताकि बोई हुई फसल को इनका खाद लगे, ये अन्य किसी काम नहीं आती हैं, ये जब तक रहती हैं स्थान घेरती हैं और बोई हुई फसल को नुकसान पहुंचा कर उसके हक का खाद पानी शोषित करती हैं ! (ऐसी भी कुछ दिव्यात्माएं हमारे परिचय क्षेत्र में भी विराजमान होकर आध्यात्म विज्ञान व आध्यात्म जगत को कलंकित कर रही हैं) !
इनको कहते हैं शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके शास्त्रों का ज्ञान देने वाले शास्त्रों के “पंजिकृत” ठेकेदार !!!
और यह हमारे सनातन धर्म के तथाकथित धर्मपीठाधीश्वरों, महागुरुओं व सिद्धगुरुओं का “अतिगुरुत्व है या गुरुर” है ? कुछ पता नहीं है !
कहाँ गुरु है ? ओर कहाँ गुरुर है ? यहाँ यह पता लगाना भी बहुत कठिन है ! बस सब अपने कुलगुरु की ही आराधना कर लो तो तुम्हारे लिए इतना ही पर्याप्त हो जायेगा, अन्यथा ये सन्यासी जैसा मेकअप किये हुए बहरूपिये तुम्हारे सिद्धगुरु ओर महागुरु बनकर “खुद सोने की नाव में बैठकर, तुमको बिना आग पानी के समुद्र में डुबोकर मारेंगे, और स्वयं ख्याती और दंभ की आग के समुद्र में जलते हुए मारे जाएंगे !!”
(किसी को इस लेख से आघात पहुंचा हो तो कृपया हमें क्षमा मत करना, बस आत्ममंथन करना कि आप भी ऐसा ही कोई सिद्धगुरु, महागुरु हैं या ऐसे ही किसी सिद्धगुरु, महागुरु के श्रीचरण सेवक हैं ???)