श्रीविद्या हृदयस्थ साधना श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” की एक सहायक साधना है ! कोई साधक जब साधना प्रारम्भ करता है तो नियमानुसार प्रत्येक साधना में पूर्ण नियंत्रित व निर्धारित ऊर्जा व ऊर्जा का वर्तुल परमावश्यक होता है जो साधना के परिणाम का मूल सूत्रधार होता है !
किसी भी साधना का परिणाम कहीं बाहर से आपको प्राप्त नहीं होता है, बल्कि वह केवल आपके अपने शरीर से उत्पन्न होने वाली दोष रहित ऊर्जा के साथ गुरु द्वारा बताई गई विशुद्ध ध्वनी व उच्चारण से मन में ऊच्चारित किये गए मन्त्र व यज्ञादि से उत्पन्न ऊर्जा का सामंजस्य स्थिर होकर पृथक-पृथक साधना के लिए पृथक-पृथक सुनिश्चित अनुपात में पिंड व ब्रह्माण्ड में वह ऊर्जा संग्रह हो जाने के उपरान्त ही उसका परिणाम प्राप्त होता है, न कि मन्त्र को रटने या असैद्धांतिक व मनमुखी रीतियों से साधना करने से !
श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” में दीक्षित हुआ साधक जब श्रीविद्या साधना प्रारम्भ करता है तो आयु की अधिकता, रोग, शारीरिक बल क्षीणता आदि किन्ही कारणों से साधक की ऊर्जा न्यून हो, और यदि साधक की ऊर्जा की न्यूनता के कारण साधना ठीक से गति नहीं कर पा रही हो, तब केवल इस परिस्थिति में ही श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” में दीक्षित हुए साधक को यह श्रीविद्या हृदयस्थ दीक्षा लेकर श्रीविद्या हृदयस्थ साधना संपन्न करनी चाहिए ! और इस साधना को संपन्न करने के बाद श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” की साधना संपन्न करनी चाहिए !
आयु की अधिकता, रोग, शारीरिक बल क्षीणता आदि किन्ही कारणों से न्यून ऊर्जा वाला साधक श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” लेते समय भी उसी समय पर यह दीक्षा लेकर पहले श्रीविद्या हृदयस्थ साधना संपन्न कर तदुपरांत श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” की साधना पूर्ण कर सकता है !
साधक अथवा उसको दीक्षा देने वाला गुरु ऊर्जा का पूर्वांकलन कर लेने के उपरान्त यदि दीक्षा विधान को संपन्न करता है, तो इससे साधक का बहुत अधिक समय व मानसिक तनाव को रोक कर कहीं अधिक शीघ्र श्रीविद्या “क्रमदीक्षा” साधना में सफलता प्राप्त की जाती है !
और यदि साधक की ऊर्जा का स्तर पुर्णतः उत्तम व नियंत्रित है तो साधक को श्रीविद्या हृदयस्थ साधना कदापि नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने साधना विधान में ही गुरुगम्य होकर यथासम्भव सुधार करने चाहिए !