- 1 :- प्रत्येक जीव अपने लिए योग्य गुरु को ढूंढ़ता है, इसके विपरीत स्वयं में शिष्य होने की योग्यता को खोजेंगे तो आपको आपके उद्देशय में शीघ्र ही सफलता मिलेगी , गुरु रूपी तोपवान दीक्षा रूपी चिंगारी से केवल योग्य शिष्य रूपी उत्तम श्रेणी की बारूद को ही दहका कर विराट बना सकता है, जबकि अयोग्य व कुटिल शिष्य रूपी घटिया श्रेणी की बारूद का तो दहकती हुई भट्ठी में डाल देने पर भी कुछ नहीं होगा ! प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को योग्य बनाकर उसका उत्थान करना चाहता है, केवल योग्य ही नहीं वह स्वयं से भी अधिक सक्षम उसको बना लेना चाहता है, लेकिन समर्पण व विश्वासहीन, अहंकार व कुटिलता से परिपूर्ण जीव को शिष्य के जैसा हो जाना भी बहुत दूर की बात होती है ! इसलिए अपनी योग्यता की वृद्धि करना चाहिए न कि गुरु की योग्यता का आंकलन, गुरु तो गुरु ही है आपके द्वारा आंकलन करने से उसकी गरिमा प्रभावित नहीं हो सकती है, और न ही आंकलन करने से वह आपके स्तर पर उतर सकता है ! आपकी योग्यता अवश्य उसे आप तक ले आएगी, अथवा आपको उस तक ले जाएगी ! जिस प्रकार गहराई की और जल स्वयं बहकर आ जाता है उसी प्रकार आपकी योग्यता व सुपात्रता की गहराई गुरु रूपी जल को स्वयं ही अपनी और खींच लेगी ! गुरु तो स्वयं प्रत्येक समय लुटने के लिए तैयार बैठे होते हैं, जिन्हें केवल शिष्य की योग्यता, विश्वास व समर्पण ही लूट सकता है, अन्यथा कोई नहीं !!!
- 2 :- लगभग सभी सज्जन एक गंभीर समस्या से ग्रस्त रहते हैं, वो यह कि – वो यह मानते हैं कि पूजा पाठ करने से हमारी भौतिक समस्याओं का समाधान हो जायेगा, जबकि ऐसा नहीं हो सकता है ! यानि कि आप कर्म करते हैं आध्यात्मिक उत्थान वाला और अपेक्षा करते हैं भौतिक पूर्ति की, जो कि कभी संभव ही नहीं है ! यदि इस मध्य किसी भौतिक समस्या का समाधान हो जाता है तो यह मात्र एक संयोग अथवा उस समस्या का स्वतः ही निवृत्त होने का समय होने से होता है ! क्योंकि दैनिक पूजा पाठ करना आध्यात्म व आस्था का विषय होता है जिससे आपका केवल आत्मिक उत्थान होता है, इससे भौतिक पूर्ति कभी भी नहीं हो सकती है ! भौतिक पूर्ति के लिए सदैव सकाम अनुष्ठान किया जाता है, अर्थात किसी कार्य विशेष की पूर्ति के लिए अपने गुरु या पुरोहित से विचार विमर्श कर कोई विशेष साधना या संकल्प लेकर किसी मन्त्र विशेष का सुनिश्चित संख्या में जप, यज्ञ आदि संपन्न किया जाता है ! अतः धान बोकर आम की फसल व आम बोकर अंगूर की फसल पाने की प्रवृत्ति से अपनी मानसिक व आर्थिक सुरक्षा स्वयं करें ! अपने गुरु व ईष्ट के प्रति निस्वार्थ, निर्विकल्प व निर्विकार अटूट आस्था व समर्पण होने की स्थिति में उपरोक्त नियम मान्य नहीं होता है !
- 3 :- कोई सज्जन चाहे किसी भी पंथ या संप्रदाय से दीक्षित हो, वह अपने उद्देश्य के लिए अन्य पंथ या संप्रदाय के गुरुजनों से साधना हेतु मंत्रदीक्षा ग्रहण कर साधनाएं कर सकता है ! तथा पृथक-पृथक गुरुजनों से पृथक-पृथक मन्त्रों की दीक्षाएं लेकर साधनाएं संपन्न कर सकता है, किन्तु किसी भी मन्त्र की किसी भी गुरुजन से दो बार दीक्षा नहीं ले सकता है, अपितु उसी विषय, साधना कुल व संप्रदाय के अन्य मन्त्र से दीक्षा अवश्य ले सकता है, किन्तु साधना का कुल व संप्रदाय फिर भी परिवर्तन नहीं कर सकता है !
यदि ऐसा हुआ तो जिस प्रकार +++=- हो जाता है ठीक उसी प्रकार गुरुत्व से युक्त दो समान शक्तियां आपस में टकराकर समाप्त हो जाती हैं तथा वह मन्त्र ओर दीक्षा भी निष्फल हो जाते हैं ! और इस प्रकार से बिना विचार किये “दीक्षा देने वाला गुरु और दीक्षा लेने वाला शिष्य” ये दोनों ही गुरुत्व का अतिक्रमण व अपमान करने के अपराधी व शिव शाप से दूषित होकर अहैतुक ही अज्ञात दैविक कष्टों को भोगते हैं !
अर्थात किसी भी मन्त्र की दीक्षा केवल एक बार ही ली जा सकती है, कोई न्यूनता आ जाने पर दूसरी बार तो केवल उस मन्त्र से तत्वाभिषिक्त अथवा रसाभिषिक्त ही हुआ जा सकता है अथवा परिमार्जन ही केवल किया जा सकता है ! तथा उपरोक्त दोष से ग्रस्त जीवों की उच्च श्रेणी का सिद्ध साधक ही रक्षा कर सकता है अन्यथा कोई नहीं !
इसीलिए उच्च श्रेणी के सिद्ध साधुजन पुर्वदिक्षा के लक्षण देखकर ओर तत्वाभिषेक करके ही अपने शिष्यों को दीक्षा प्रदान करते हैं !
- 4 :- साधक को भलीभांति यह जान लेना चाहिए कि वह जिस साधना को संपन्न करना चाहते हैं, उसका परिणाम कहीं बाहर से आपको प्राप्त नहीं होगा बल्कि वह केवल आपके अपने शरीर से उत्पन्न होने वाली दोष रहित ऊर्जा के साथ गुरु द्वारा बताई गई विशुद्ध ध्वनी व उच्चारण से मन में ऊच्चारित किये गए मन्त्र व यज्ञादि से उत्पन्न ऊर्जा का सामंजस्य स्थिर होकर पृथक-पृथक साधना के लिए पृथक-पृथक सुनिश्चित अनुपात में पिंड व ब्रह्माण्ड में वह ऊर्जा संग्रह हो जाने के उपरान्त ही उसका परिणाम प्राप्त होता है, न कि मन्त्र को रटने से !
- 5 :- जिस साधक ने स्वयं जिस विद्या, साधना को सिद्ध कर रखा हो, उससे केवल उसी साधना की दीक्षा लेकर साधना करनी चाहिए ! जिस साधक ने स्वयं जिस विद्या, साधना को सिद्ध नहीं कर रखा हो, उससे कभी गलती से भी उस विद्या, साधना की दीक्षा लेकर साधना नहीं करनी चाहिए, अन्यथा आप उस साधना को करते करते पूरा जीवन बिता जायेंगे लेकिन आपको परिणाम कुछ नहीं मिलेगा ! क्योंकि जिसके स्वयं के पास जो पदार्थ नहीं है वह उस पदार्थ को किसी अन्य को कैसे दे सकता है ? वह केवल अभिलाषी को जानकारी होने की स्थिति में उस साधना के विषय में उचित मार्गदर्शन कर सकता है अथवा किसी ऐसे अन्य साधक से परिचय करा सकता है जिसने वह साधना स्वयं पूर्ण रूप से सिद्ध कर ली हो, कितु उस साधना की स्वयं दीक्षा नहीं दे सकता है !