श्री धूमावती महाविद्या इस श्रष्टि की केन्द्रीय सर्वोच्च नियामक एवं क्रियात्मक सत्ता मूल शक्ति की प्रकृति (गुण) स्वरूपी प्रधान सोलह कलाओं में से सप्तम कला, प्रवृत्ति (स्वभाव) स्वरूपी प्रधान सोलह योगिनियों में से सप्तम योगिनी, तुरीय आदि प्रधान सोलह अवस्थाओं में से सप्तम अवस्था एवं चतु: आयाम से युक्त क्रिया रूपी सोलह विद्याओं में से सप्तम विद्या के रूप में सृजित हुई है !
यह महाविद्या इस लोक में सनातन धर्म व संस्कृति से प्रेरित सम्प्रदायों में दस महाविद्याओं में श्री धूमावती महाविद्या के नाम से जानी जाती हैं । जबकि इस लोक व अन्य लोकों में सनातन धर्म से प्रेरित सम्प्रदायों के अतिरिक्त अन्य धर्म व सम्प्रदायों में उनकी अपनी भाषा, संस्कृति व मत के अनुसार अन्य अनेक नामों से जानी जाती हैं ।
स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, एक समय देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, अपने निवास स्थान कैलाश में बैठी हुई थी । देवी, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त थी (भूखी थी) तथा उन्होंने शिव जी से अपनी क्षुधा निवारण हेतु कुछ भोजन प्रदान करने का निवेदन किया । भगवान शिव ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिया कहा, कुछ समय पश्चात उन्होंने पुनः भोजन हेतु निवेदन किया ।
परन्तु शिव जी ने उन्हें कुछ क्षण और प्रतीक्षा करने का पुनः आश्वासन दिया । बार-बार भगवान शिव द्वारा इस प्रकार आश्वासन देने पर, देवी धैर्य खो क्रोधित हो गई तथा उन्होंने अपने पति को ही उठाकर निगल लिया । तदनंतर देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली तथा उस धूम्र राशि ने उन्हें पूरी तरह से ढक दिया ।
तदनंतर, भगवान शिव, देवी के शरीर से बहार आये तथा कहा! आपकी यह सुन्दर आकृति धुएं से ढक जाने के कारण धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी । अपने पति (भगवान शिव) को खा (निगल) लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हुई, देवी स्वामी हीन हैं ।
देवी धूमावती, भगवान शिव के विधवा के रूप में विद्यमान हैं; अपने पति भगवान शिव को निगल जाने के कारण देवी विधवा हैं । देवी का भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करती हैं ।
देवी धूमावती का वास्तविक रूप धुएं जैसा है, शारीरिक स्वरूप से देवी! कुरूप, उबर-खाबड़ या बेढंगी हैं, विचलित स्वभाव वाली, लंबे कद की, तीन नेत्रों से युक्त तथा मैले वस्त्र धारण करने वाली हैं । देवी के दांत तथा नाक लम्बी तथा कुरूप, बेढंगे हैं, कान डरावने, लड़खड़ाते हुए हाथ-पैर, स्तन झूलते हुए प्रतीत होती हैं ।
देवी खुले बालो से युक्त, एक वृद्ध विधवा का रूप धारण की हुई हैं । अपने बायें हाथ में देवी ने सूप तथा दायें हाथ में मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण कर रखा हैं, कही-कही वे आशीर्वाद भी प्रदान रही हैं । देवी का स्वभाव अत्यंत अशिष्ट हैं तथा देवी सर्वदा अतृप्त तथा भूखी-प्यासी हैं । देवी काले वर्ण की है तथा इन्होंने सर्पों, रुद्राक्षों को अपने आभूषण स्वरूप धारण कर रखा हैं ।
देवी श्मशान भूमि में मृत शरीर से निसर्ग श्वेत वस्त्रों को धारण करती हैं तथा श्मशान भूमि में ही निवास करती हैं; देवी धूमावती समाज से बहिष्कृत हैं । देवी कौवों द्वारा खींचते हुए रथ पर आरूढ़ हैं । देवी का सम्बन्ध पूर्णतः श्वेत वस्तुओं से ही हैं तथा लाल वर्ण से सम्बंधित वस्तुओं का पूर्णतः त्याग करती हैं ।
देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतीक स्वरूपा है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं । देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी के आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं । अपवित्रता! नाश का कारण बनती हैं, देवी इसकी प्रतीक हैं ।
देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, स्थिर रोग निवारण, युद्ध विजय, एवं घोर कर्म मारण, उच्चाटन इत्यादि में की जाती हैं । देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा मनुष्य के जीवन से कभी जाती ही नहीं हैं, स्थिर रहती हैं । देवी, प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग रहे कामनाओं का नाश कर देती हैं ।
आगम ग्रंथों के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं ।
देवी धूमावती अकेली, विरक्त तथा स्व-नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हैं; देवी विधवा हैं । दस महाविद्याओं में सातवें स्थान पर देवी धूमावती अवस्थित है एवं उग्र स्वभाव वाली अन्य शक्तियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं । संसार बंधन से विरक्त होने की शक्ति देवी ही प्रदान करती हैं, जो साधक के योग की उच्च अवस्था तथा मोक्ष प्राप्त करने हेतु सहायक होती हैं ।
मुख्य नाम : धूमावती ।
अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प-हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया ।
भैरव : विधवा, कोई भैरव नहीं ।
कुल : श्री कुल ।
दिशा : आग्नेय कोण ।
स्वभाव : सौम्य-उग्र ।
कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुों का विनाश करने वाली ।
शारीरिक वर्ण : धूम्र काला ।
श्री धूमावती महाविद्या ध्यान :-
विवर्णा चंचला कृष्णा दीर्घा च मलिनाम्बरा, विमुक्त कुंतला रूक्षा विधवा विरलद्विजा !
काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा सूर्पहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता !
प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा क्षुत्पिपासार्दिता नित्यं भयदा काल्हास्पदा ।
जाप मंत्र :-
(सभी शक्तियों के बीजमन्त्रों के लिए अत्यन्त गोपनीयता का विधान होता है इसी कारण से सभी शक्तियों के बीजमन्त्र एवं वैदिक मन्त्र मूल ग्रन्थों में गूढ़कृत लिखे गए हैं, गोपनीयता का विधान होने के कारण बीजमन्त्रों को कहीं भी सार्वजनिक लिखा या बोला नहीं जा सकता है, बीजमन्त्र को केवल दीक्षा विधान के द्वारा गुरुमुख से प्राप्त किया जा सकता है ! इसलिए यहां पर इन महाविद्या के वैदिक व बीजमन्त्र को नहीं लिखा गया है !)
शाबर मन्त्र :-
सत नमो आदेश,
गुरूजी को आदेश ॐ गुरूजी,
ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार,
आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन असवार,
आकाश दिशा से धूमावन्ती आई,
काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश,
विधवा रुप लम्बे हाथ,
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली,
क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी ।
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये ।
धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव
तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये
श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
इतना धूमावती जाप सम्पूर्ण भया,
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश ||