श्री मातंगी महाविद्या इस श्रष्टि की केन्द्रीय सर्वोच्च नियामक एवं क्रियात्मक सत्ता मूल शक्ति की प्रकृति (गुण) स्वरूपी प्रधान सोलह कलाओं में से नवम कला, प्रवृत्ति (स्वभाव) स्वरूपी प्रधान सोलह योगिनियों में से नवम योगिनी, तुरीय आदि प्रधान सोलह अवस्थाओं में से नवम अवस्था एवं चतु: आयाम से युक्त क्रिया रूपी सोलह विद्याओं में से नवम विद्या के रूप में सृजित हुई है !
यह महाविद्या इस लोक में सनातन धर्म व संस्कृति से प्रेरित सम्प्रदायों में दस महाविद्याओं में श्री मातंगी महाविद्या के नाम से जानी जाती हैं । जबकि इस लोक व अन्य लोकों में सनातन धर्म से प्रेरित सम्प्रदायों के अतिरिक्त अन्य धर्म व सम्प्रदायों में उनकी अपनी भाषा, संस्कृति व मत के अनुसार अन्य अनेक नामों से जानी जाती हैं ।
देवी मातंगी का शारीरिक वर्ण गहरे नीले रंग या श्याम वर्ण का है, अपने मस्तक पर देवी अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा देवी तीन नशीले नेत्रों से युक्त हैं । देवी अमूल्य रत्नों से युक्त रत्नमय सिंहासन पर बैठी हैं एवं नाना प्रकार के मुक्ता-भूषण से सुसज्जित हैं, जो उनकी शोभा बड़ा रहीं हैं । कहीं-कहीं देवी! कमल के आसन तथा शव पर भी विराजमान हैं । देवी मातंगी गुंजा के बीजों की माला धारण करती हैं, लाल रंग के आभूषण देवी को प्रिय हैं तथा सामान्यतः लाल रंग के ही वस्त्र-आभूषण इत्यादि धारण करती हैं ।
देवी सोलह वर्ष की एक युवती जैसी स्वरूप धारण करती हैं जिनकी शारीरिक गठन पूर्ण तथा मनमोहक हैं । देवी चार हाथों से युक्त हैं, इन्होंने अपने दायें हाथों में वीणा तथा मानव खोपड़ी धारण कर रखी हैं तथा बायें हाथों में खड़ग धारण करती हैं एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं । इनके आस पास पशु-पक्षियों को देखा जा सकता हैं, सामान्यतः तोते इनके साथ रहते हैं ।
देवी मातंगी दस महाविद्याओं में नवें स्थान पर अवस्थित हैं, सामान्यतः देवी! निम्न तथा नाना जनजातियों से सम्बंधित हैं । अन्य एक विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनी या महा-पिशाचिनी से भी देवी विख्यात हैं तथा देवी का सम्बन्ध नाना प्रकार के तंत्र क्रियाओं, विद्याओं से हैं । इंद्रजाल विद्या या जादुई शक्ति में देवी पारंगत हैं साथ ही! वाक् सिद्धि, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में निपुण हैं, नाना सिद्ध विद्याओं से सम्बंधित हैं; देवी तंत्र विद्या में पारंगत हैं ।
देवी, केवल मात्र वचन द्वारा त्रिभुवन में समस्त प्राणियों तथा अपने घोर शत्रु को भी वश करने में समर्थ हैं, जिसे सम्मोहन क्रिया कहा जाता हैं, देवी! सम्मोहन विद्या एवं वाणी की अधिष्ठात्री हैं । देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षी, जंगल, वन, शिकार इत्यादि से हैं, जंगल में वास करने वाले आदिवासी-जनजातियों से देवी मातंगी अत्यधिक पूजिता हैं । निम्न तथा जन जाती द्वारा प्रयोग की जाने वाली नाना प्रकार की परा-अपरा विद्या देवी द्वारा ही उन्हें प्रदत्त हैं ।
देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध उच्छिष्ट भोजन पदार्थों से हैं, परिणामस्वरूप देवी, उच्छिष्ट चांडालिनी के नाम से विख्यात हैं, देवी की आराधना हेतु उपवास की आवश्यकता नहीं होती हैं । देवी की आराधना हेतु उच्छिष्ट सामाग्रीयों की आवश्यकता होती हैं चुकी देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी ।
शक्ति संगम तंत्र के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु और उनकी पत्नी लक्ष्मी जी,भगवान शिव तथा पार्वती से मिलने हेतु उनके निवास स्थान कैलाश शिखर पर गये । भगवान विष्णु अपने साथ कुछ खाने की सामग्री ले गए तथा उन्होंने वह खाद्य प्रदार्थ शिव जी को भेट स्वरूप प्रदान की । भगवान शिव तथा पार्वती ने, उपहार स्वरूप प्राप्त हुए वस्तुओं को खाया, भोजन करते हुए खाने का कुछ अंश नीचे धरती पर गिरे; उन गिरे हुए भोजन के भागों से एक श्याम वर्ण वाली दासी ने जन्म लिया, जो मातंगी नाम से विख्यात हुई ।
देवी का प्रादुर्भाव उच्छिष्ट भोजन से हुआ, परिणामस्वरूप देवी का सम्बन्ध उच्छिष्ट भोजन सामग्रियों से हैं तथा उच्छिष्ट वस्तुओं से देवी की आराधना होती हैं । देवी उच्छिष्ट मातंगी नाम से जानी जाती हैं ।
देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई, माना जाता हैं तभी से वे सुखी, सम्पन्न, श्री युक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं ।
देवी मातंगी का सम्बन्ध मृत शरीर या शव तथा श्मशान भूमि से हैं । देवी अपने दाहिने हाथ पर महा-शंख (मनुष्य खोपड़ी) या खोपड़ी से निर्मित खप्पर, धारण करती हैं । पारलौकिक या इंद्रजाल, मायाजाल से सम्बंधित रखने वाले सभी देवी-देवता श्मशान, शव, चिता, चिता-भस्म, हड्डी इत्यादि से सम्बंधित हैं, पारलौकिक शक्तियों का वास मुख्यतः इन्हीं स्थानों पर हैं ।
तंत्रो या तंत्र विद्या के अनुसार देवी तांत्रिक सरस्वती नाम से जानी जाती हैं एवं श्री विद्या की प्रमुख देवी श्री महा त्रिपुरसुंदरी के रथ की सारथी तथा मुख्य सलाहकार हैं ।
मुख्य नाम : मातंगी ।
अन्य नाम : सुमुखी, लघुश्यामा या श्यामला, उच्छिष्ट-चांडालिनी, उच्छिष्ट-मातंगी, राज-मातंगी, कर्ण-मातंगी, चंड-मातंगी, वश्य-मातंगी, मातंगेश्वरी, ज्येष्ठ-मातंगी, सारिकांबा, रत्नांबा मातंगी, वर्ताली मातंगी ।
भैरव : मतंग ।
तिथि : वैशाख शुक्ल तृतीया ।
कुल : श्री कुल ।
दिशा : वायव्य कोण ।
स्वभाव : सौम्य स्वभाव ।
कार्य : सम्मोहन एवं वशीकरण, तंत्र विद्या पारंगत,
संगीत तथा ललित कला निपुण ।
शारीरिक वर्ण : काला या गहरा नीला ।
श्री मातंगी महाविद्या ध्यान :-
घनश्यामलांगीं स्थितां रत्नपीठे शुकस्योदितं श्रृण्वतीं रक्त वस्त्राम् ।
सुरापानमत्तां सरोजस्थितां श्रीं भजे वल्लकीं वादयन्तीं मतंगीम् । ।
जाप मंत्र :-
(सभी शक्तियों के बीजमन्त्रों के लिए अत्यन्त गोपनीयता का विधान होता है इसी कारण से सभी शक्तियों के बीजमन्त्र एवं वैदिक मन्त्र मूल ग्रन्थों में गूढ़कृत लिखे गए हैं, गोपनीयता का विधान होने के कारण बीजमन्त्रों को कहीं भी सार्वजनिक लिखा या बोला नहीं जा सकता है, बीजमन्त्र को केवल दीक्षा विधान के द्वारा गुरुमुख से प्राप्त किया जा सकता है ! इसलिए यहां पर इन महाविद्या के वैदिक व बीजमन्त्र को नहीं लिखा गया है !)
शाबर मन्त्र :-
सत नमो आदेश,
गुरूजी को आदेश ॐ गुरूजी,
ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ओंकार,
ओंकार मे शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना,
सुभय में धाम कमल में विश्राम,
आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला,
शीश पर शशि अमीरस प्याला हाथ खड्ग नीली काया ।
बल्ला पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी,
उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य मांसे घृत कुण्डे सर्वांगधारी ।
बूँद मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते तृप्यन्ते ।
ॐ मातंगी, सुंदरी, रूपवन्ती, धनवन्ती, धनदाती,
अन्नपूर्णी, अन्नदाती,
मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये ।
तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
इतना मातंगी जाप सम्पूर्ण भया,
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश ||