श्री त्रिपुरभैरवी महाविद्या इस श्रष्टि की केन्द्रीय सर्वोच्च नियामक एवं क्रियात्मक सत्ता मूल शक्ति की प्रकृति (गुण) स्वरूपी प्रधान सोलह कलाओं में से षष्ठम कला, प्रवृत्ति (स्वभाव) स्वरूपी प्रधान सोलह योगिनियों में से षष्ठम योगिनी, तुरीय आदि प्रधान सोलह अवस्थाओं में से षष्ठम अवस्था एवं चतु: आयाम से युक्त क्रिया रूपी सोलह विद्याओं में से षष्ठम विद्या के रूप में सृजित हुई है !
यह महाविद्या इस लोक में सनातन धर्म व संस्कृति से प्रेरित सम्प्रदायों में दस महाविद्याओं में श्री त्रिपुरभैरवी महाविद्या के नाम से जानी जाती हैं । जबकि इस लोक व अन्य लोकों में सनातन धर्म से प्रेरित सम्प्रदायों के अतिरिक्त अन्य धर्म व सम्प्रदायों में उनकी अपनी भाषा, संस्कृति व मत के अनुसार अन्य अनेक नामों से जानी जाती हैं ।
देवी त्रिपुरभैरवी का घनिष्ठ सम्बन्ध ‘काल भैरव’ से हैं, जो जीवित तथा मृत दोनों अवस्थाओं में मनुष्य को अपने दुष्कर्मों के अनुसार दंड देते हैं, वे अत्यंत भयानक स्वरूप और उग्र स्वभाव वाले हैं । काल भैरव, स्वयं भगवान शिव के ऐसे अवतार हैं, जिनका घनिष्ठ सम्बन्ध विनाश से हैं तथा वे यम राज के अत्यंत निकट हैं । जीवात्मा को अपने दुष्कर्मों का दंड यम-राज या धर्म-राज के द्वारा दिया जाता हैं । त्रिपुरभैरवी, काल भैरव तथा यम राज भयंकर स्वरूप वाले हैं, जिन्हें देख सभी भय से कातर हो जाते हैं । दुष्कर्म के परिणामस्वरूप विनाश तथा दंड, इन भयंकर स्वरूप वाले देवी-देवताओं की ही संचालित शक्ति हैं । देवी, कालरात्रि, महा-काली, चामुंडा आदि विनाशकारी गुणों से सम्बंधित देवियों के समान मानी जाती हैं ।
भैरवी शब्द तीन अक्षरों से मिल कर बना हैं, प्रथम ‘भै या भरणा’ जिसका तात्पर्य ‘रक्षण’ से हैं, द्वितीय ‘र या रमणा’ रचना तथा ‘वी या वमना’ मुक्ति से सम्बंधित हैं । प्राकृतिक रूप से देवी घोर विध्वंसक प्रवृति से सम्बंधित हैं ।
देवी तामसी गुण सम्पन्न हैं; यह गुण मनुष्य के स्वभाव पर भी प्रतिपादित होता हैं, जैसे क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ एवं मदिरा सेवन, धूम्रपान इत्यादि जैसे विनाशकारी गुण, जो मनुष्य को विनाश की ओर ले जाते हैं । देवी, इन्हीं विध्वंसक तत्वों तथा प्रवृति से सम्बंधित हैं, देवी काल-रात्रि या महा-काली के समान गुण वाली हैं ।
देवी भैरवी, कि शारीरिक कांति हजारों उगते हुए सूर्य के समान हैं तथा कभी-कभी देवी का शारीरिक वर्ण गहरे काले रंग के समान प्रतीत होती हैं, जैसे काली या काल रात्रि का हैं । नग्न अवस्था में देवी तीन खुले हुए नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए हैं तथा रुद्राक्ष, सर्पों और मानव खोपडियों से निर्मित माला से सुशोभित हैं । देवी के लम्बे काले घनघोर बाल हैं, चार भुजाओं से युक्त देवी अपने दायें हाथों में खड़ग तथा मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण करती हैं तथा बायें हाथों से अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं ।
देवी अपने स्वाभाविक स्वरूप में अत्यंत भयंकर, प्रचंड डरावनी प्रतीत होती हैं, देवी हाल ही कटे हुए असुरों के मुंडो या मस्तकों की माला अपने गले में पहनती हैं, जिनसे रक्त की धार बह रही हो । देवी का मुखमंडल भूत तथा प्रेतों के समान डरावना तथा भयंकर हैं, देवी का प्राकट्य मृत देह या शव से हैं । देवी वह शक्ति हैं जिसके प्रभाव से ही मृत देह अपने-अपने तत्वों में विलीन होते हैं, फिर वह दाह संस्कार से हो या सामान्य प्रक्रिया से । शव दाह संस्कार, शव को सामान्य प्रक्रिया से शीघ्र पञ्च-तत्व में विलीन करने हेतु किया जाता हैं ।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार देवी त्रिपुरभैरवी, महिषासुर नामक दैत्य के वध काल से सम्बंधित हैं । देवी लाल वस्त्र तथा गले में मुंड-माला धारण करती हैं समस्त शरीर एवं स्तनों में रक्त चन्दन का लेपन करती हैं । देवी, अपने दाहिने हाथों में जप माला तथा पुस्तक धारण करती हैं, बायें हाथों से वर एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं एवं कमल के आसन पर विराजमान हैं । यह स्वरूप देवी का सौम्य स्वभाव युक्त होने पर हैं; भगवती त्रिपुरभैरवी ने ही, अठारह भुजा युक्त दुर्गा रूप में उत्तम मधु का पान कर महिषासुर नामक दैत्य का वध किया था ।
देवी, कि साधना घोर कर्मों से सम्बंधित कार्यों में की जाती हैं । देवी, मनुष्य के स्वभाव या दिनचर्या से वासना, लालच, क्रोध, ईर्ष्या, नशा तथा भ्रम को मुक्त कर योग साधना में सफलता हेतु सहायता करती हैं । समस्त प्रकार के विकारों या दोषों को दूर कर ही मनुष्य योग साधना के उच्चतम स्तर तक पहुँच सकता हैं अन्यथा नहीं । कुण्डलिनी शक्ति जाग्रति हेतु, समस्त प्रकार के मानव दोषों या अष्ट पाशों का विनाश आवश्यक हैं तथा यह शक्ति देवी त्रिपुरभैरवी द्वारा ही प्राप्त होती हैं ।
मुख्य नाम : त्रिपुरभैरवी ।
अन्य नाम : चैतन्य भैरवी, नित्य भैरवी, भद्र भैरवी, श्मशान भैरवी, सकल सिद्धि भैरवी, संपत-प्रदा भैरवी, कामेश्वरी भैरवी इत्यादि ।
भैरव : दक्षिणामूर्ति या वटुक भैरव ।
कुल : श्री कुल ।
दिशा : पूर्व ।
स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न ।
कार्य : विध्वंस या पञ्च तत्वों में विलीन करने की शक्ति ।
शारीरिक वर्ण : सौम्य स्वभाव में लाल, हजारों उगते हुए सूर्य के समान तथा उग्र रूप में घोर काले वर्ण युक्त ।
श्री त्रिपुरभैरवी महाविद्या ध्यान :-
उद्यद्भानुसहस्रकांतिमरुणक्षौमां शिरोमालिकाम्, रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम् ।
हस्ताब्जैदधतीं त्रिनेत्र विलसद्रक्तारविंद श्रियमं, देवीं बद्धहिमांशुरक्तमुकुटां वंदे रविंद स्थिताम् । ।
जाप मंत्र :-
(सभी शक्तियों के बीजमन्त्रों के लिए अत्यन्त गोपनीयता का विधान होता है इसी कारण से सभी शक्तियों के बीजमन्त्र एवं वैदिक मन्त्र मूल ग्रन्थों में गूढ़कृत लिखे गए हैं, गोपनीयता का विधान होने के कारण बीजमन्त्रों को कहीं भी सार्वजनिक लिखा या बोला नहीं जा सकता है, बीजमन्त्र को केवल दीक्षा विधान के द्वारा गुरुमुख से प्राप्त किया जा सकता है ! इसलिए यहां पर इन महाविद्या के वैदिक व बीजमन्त्र को नहीं लिखा गया है !)
शाबर मन्त्र :-
सत नमो आदेश,
गुरूजी को आदेश ॐ गुरूजी,
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा,
गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती !
काला खप्पर हाथ खंजर कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत,
जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी,
त्रिपुर- भैरवी, समपत-प्रदा-भैरवी, कौलेश- भैरवी, सिद्धा-भैरवी,
विध्वंशिनी-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कमेश्वरी-भैरवी,
षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी, जपा-अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी ।
ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी
अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार,
भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर,
दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा ।
अमर लोक में हुवा निवासा ।
इतना त्रिपुरभैरवी जाप सम्पूर्ण भया,
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश ||