सनातन धर्म मे विज्ञान और सिद्धियाँ पाने के तीन तरीके है :- तंत्र, मंत्र और यंत्र. हमारा सारा तप और योग इन्ही तीन चीज़ो द्वारा संपन्न होता है, भक्ति अलग विषय है ! भक्ति की शक्ति भगवान पर, आस्था पर खड़ी है ! भगवान नही है तो भक्ति भी पैदा नही हो सकती ! तप और योग भगवान की शक्ति को नही बल्कि भगवान द्वारा हमें प्रदान की गई आंतरिक शक्तियो को जगाने के तरीके है ! जिसमें सारा खेल उर्जा को जगाने, उठाने के लिए है ! उर्जा नियंत्रित हो गई तो बड़े बड़े काम सिद्ध होने लगते है ! यानी प्यूर्ली गेम ऑफ पावर !
ऋषि मुनियो ने बहुत समय तक ये कहा कि शास्त्र ना लिखे जाए वैसे भी शास्त्र कहा जाता था, बताया जाता था, सिखाया जाता था पर लिखा नही जाता था ! लिखा हुआ शास्त्र नही होता, पुस्तक या ग्रंथ होता है ! परन्तु ज्ञानांध व विद्याहंकारी ब्राह्मणवाद ने इसे लिखकर ग्रन्थ बना दिया, और यही से इसका सारा प्रभाव खोने लग गया !
आज भी हमारी संस्कृति में किसी साधना को करने के निमित्त दीक्षा लेना अनिवार्य है, क्योंकि दीक्षा के समय गुरु अपने शिष्यों के द्वारा विशेष अनुष्ठानों को संपन्न कराकर अपने उन शिष्यों के मन, आत्मा व देह को ग्राह्य व निर्द्वंद बनाकर उन्हें वेदों, शास्त्रों के विशिष्ट ध्वनी में उपदेश या मन्त्र सुनाते हैं, इस प्रकरण में विशेष अनुष्ठानों के द्वारा निर्मल व ग्राह्य हुए शिष्यों के मन, आत्मा व देह उन उपदेशों को उसी मूल ध्वनी के रूप में बीज की भांति ग्रहण कर जाते हैं !
हमारे ऋषि मुनि अपने गुरुकुल मे शिष्यो को मंत्रो का उच्चारण सिखाया करते थे जो मौखिक था, लिखित नही !! कहाँ सुर लंबा करना है और कहां धीमा करना है, यह सब सिखाया जाता था ! बिल्कुल वैसे ही जैसे आप गायकी सीखते हैं, यह सब अभ्यास व उच्चारण पर निर्भर करता है ना की पढ़के रटना है ! मन्त्रों में तो सारा खेल ही ध्वनि का है, और ध्वनि लिखी नही जा सकती ! केवल शब्द लिखा जा सकता है !!
और आज आप मन्त्रों के स्थान पर शब्द बोल रहे हो, ना की मन्त्रों की ध्वनि निकाल रहे हो, तो फिर मंत्र असर कैसे करेगा ??? यदि आप खांसते हो तो आप उस खांसने की ध्वनी को कैसे लिखोगे ? “खोंखों या उहु उहू” पर ये तो शब्द बन गया ये वो मूल ध्वनि नही है जो खांसते समय निकली थी ! महत्व ध्वनि का है और हम शब्द मे उलझ जाते हैं . ट्रिन ट्रिन, क्लिक, टिप टिप , पुच्च, ह्म्म, पियू, भो भो, टन टन, छीशी, उँआं, छुक छुक, ढम ढम, ठक ठक, सर्ररर, पर्र्ररर, छिंन्न्न्, छपाक इत्यादि इन सब ध्वनि को शब्दो मे बदला गया है ! आप इसे भाषानुसार पढ़ोगे तो कुछ भी हासिल नही होगा, मूल ध्वनि सुनोगे या उच्चारण करोगे तो उसका मन मस्तिष्क ओर हमारे अन्दर व्याप्त ऊर्जा शक्ति पर प्रभाव होगा !! ध्वनि स्वयं में एक उर्जा है जो मंत्रो मे व्याप्त होती है और असर उसी का होता है ना की शब्दो का ! मंत्रो से ही संगीत और गायकी निकली है, शास्त्रीय संगीत या गायन मे जो प्रभाव है उसका आधार वही ध्वनि है जो मंत्रो मे होती है. सुबह, दोपहर, शाम और रात के परिवेश के अनुसार राग बनाए गये हैं. अब उस रागो के असर से आप मंत्र के असर को समझ सकते हैं. जीवन के विशेष अवसर व परिस्थितियों के लिए विशेष मंत्र बनाए गये ताकि तनाव ना रहे !
“ॐ” भी एक शब्द है जिसे लिखा गया है, अन्यथा इसका उच्चारण एक गूँज मात्र है , पेट फेफड़ो और गले से आती हुई हवा की आवाज़ पर हम इसे लिखेगें ‘ओम’ ! अब ‘आ’ पे कितना ज़ोर देना है या ‘ओ’ पे कितना या ‘म’ पे कितना, कुछ पता नही. तो सही सही उच्चारण निकलेगा कैसे ? जब मूल उच्चारण ही नही निकलेगा तो मंत्र अपना काम कैसे करेगें ? काम तो उन ध्वनियो ने करना था जो हमने निकाली ही नही ! सो लिखे हुए मंत्र सब निरर्थक हो गये और हम आज निरर्थक शब्दो से खेल रहे हैं !
सम्पूर्ण सृष्टि में मात्र ध्वनि पैदा होती है, शब्द नही ! हवा की सायँ सायँ, पेड़ो के पत्तो की आपस मे टकरा कर आती आवाज़, पानी का कल कल, जानवरो की आवाज़े, पंछीयो की चहचाहट, मशीनो की आवाज़, हमारे कदमो की आहट व हमारी हँसी, रोना, चीखना सारे भाव सिर्फ़ ध्वनि पैदा करते है. ओर शब्द हमारी सिद्धान्तहीन उत्पत्ति मात्र है, अपनी इस सिद्धान्तहीन मनमुखी सोच के कारण हम असली शक्ति (ध्वनि) से दूर होते चले गये ! सच कहूँ तो बिना शब्द के जो ध्वनि हम सुनते है उससे हम सही नतीजे पर पहुँच जाते हैं, शब्द उल्टा भटका देते है ! अँधा आदमी या कोई बच्चा या पागल, कोई भी हो ध्वनि सुनकर सब समझ जाएगा कि क्या हुआ है ! शब्द झूठ बोल सकते है परन्तु ध्वनि कभी झूठ नही बोलती है !
आज यही हाल मन्त्रों का है ! हम शब्द और उसका भावार्थ ही पढ़ते और समझते है परन्तु उसका प्रभाव शून्य है . हमारे ऋषियो ने जो वर्षों तक परिश्रम करके ध्वनि विज्ञान (मन्त्रों) की उत्पत्ति की थी जिससे वो हर चीज़ को बाँध लेते थे, उसके प्रभाव से ख़तरनाक जानवर और आँधियों को भी रोक लेते थे व बरसात भी ले आते थे और अन्य दूसरी शक्तियो को भी बाँध लेते थे ! आज यह सब ज्ञानांध व विद्याहंकारी ब्राह्मणवाद ओर हमारी सिद्धान्तहीन मनमुखी सोच की बलिवेदी पर सिसक रहा है !! क्योंकि दूसरो को मंत्र सीखने सिखाने मे अधिक परिश्रम ना करना पड़े इस लिए ब्राह्मणवाद ने इसे लिख दिया, ओर हमारी सिद्धान्तहीन मनमुखी सोच ने इसको स्वीकार करने के साथ-साथ इस कुवृत्ति को वृद्धि की ओर ले जाकर अपने ही पैरों में स्वयं कुल्हाड़ी मार ली !!
संगीत की ही भांति इस महाविज्ञान को भी अभ्यास और उच्चारण पर सिमित रखते तो शायद आगे ओर अधिक उन्नति कर सकते थे ! अब ओम भुर्भुव: स्वः कहो या ओम ब्लिंग ब्लोंग ब्लांग कहो, जब तक मूल ध्वनी को नहीं जानोगे तब तक कोई फ़र्क नही पड़ने वाला है . आज मंत्र सिर्फ़ एक कोट और उसका मतलब बनकर रह गया है !
केवल शाबरमंत्रों में यह सिद्धान्त व नियम लागु नहीं है, क्योंकि शाबरमंत्रों के सृजनकर्ताओं ने अपनी साधना के बल पर इन मन्त्रों में शपथ, गाली आदि के द्वारा विवश कर शक्तियों को वश में करने की प्राणश्चेतना से परिपूर्ण कर रखा है !
आपने एक शब्द सुना होगा “मंत्र मुग्ध” हो जाना यानी बँध जाना, आज ऐसा नही होता क्योंकि मंत्रो मे मौजूद मुग्ध करने वाली ध्वनि उनसे नदारद है. अब अपने बनाए हुए शब्दो से खेलते रहिए. हवन करिए या शादी के मंत्र पढ़िए, जब तक मूल ध्वनी को नहीं जानोगे ओर उसके अनुसार ही उच्चारण नहीं करोगे तब तक तो इस सब से कुछ शुभ लाभ नही होना है !