प्राचीन आयुर्वेदिक शास्त्र और तंत्र-ग्रन्थों में ऐसी असंख्य वनस्पतियों (जड़ी-बूटियों और फल-फूलों) का उल्लेख मिलता है जो अमृत जैसी प्राणदायक और विष जैसी संहारक हैं। प्रयोग-भेद से अमृतोपम वनस्पति घातक और मारक वनस्पति पोषक हो जाती है। इस बात का उदाहरण संजीवनी बूटी से दिया जा सकता है, जिसने मृत्युतुल्य पड़े लक्ष्मण को क्षण भर में ही जीवन प्रदान कर दिया था। हमारे देश में नाना प्रकार की वनस्पतियां पायी जाती हैं। यद्यपि जनसंख्या के विकास तथा जंगलों के विनाश के कारण अनेक उपयोगी वनस्पतियां भी अब धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं, फिर भी, अभी अनेक वनस्पतियां तथा वृक्ष हैं, जिनका तंत्र-प्रयोग के लिए काफी महत्व है।
तंत्र-प्रयोग और औषधि रुप में, एक ही वनस्पति प्रयुक्त हो सकती है। अंतर केवल प्रयोग-भेद का है। औषधि रुप में वह रोगी के गले या बाजू में धारण करा दी जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि तंत्र-प्रयोग के लिए जिस वनस्पति की आवश्यकता होती है, एक दिन पहले उसे यह निमंत्रण देकर आना पड़ता है कि, ‘कल मैं तुम्हें लेने आऊंगा’। तब अगले दिन पूजन-क्रिया करके, सम्मानपूर्वक उसे लाया जाता है। घर लाने के बाद विधि-विधान के साथ स्थापित कर और उसे देवरुप जानकर, उससे संबंधित मंत्र का जप करके (निर्देशानुसार) धारण-प्रक्रिया की जाती है। इसके साथ ही तंत्र-साधक को कुछ विशेष प्रकार के निर्देश और नियमों का पालन भी करना पड़ता है।
योग, जप, तप, चिकित्सा तथा अन्य व्यावहारिक-क्षेत्रों में, महर्षियों ने अपने दीर्घकालीन अनुभव-अध्ययन के आधार पर अनेक प्रकार के नियम और निषेध बनाकर जनसामान्य को उस विषय के अनुकूल-प्रतिकूल प्रभावों से परिचित कराया। नियमों के अभाव में सर्वत्र अनिश्चितता रहती, न तो कोई कार्य व्यवस्थित रुप से संपन्न होता और न उमकी निश्चित परिणति ही होती। सब कुछ अंधकार में, अनुमानित, शंका और द्वन्द्व के बीच झूलता रहता। कार्यसिद्धि, सुगमता और निश्चित परिणाम के लिए नियमों का महत्व मर्वोपरि है। अध्यात्म के क्षेत्र में तो नियमों का प्रतिबंध बहुत ही कठोर है। तनिक-सी चूक, शिथिलता अथवा प्रमाद से साधना निष्फल हो जाती है। जिस प्रकार स्वास्थ्य-विज्ञान का नियम है कि दूध में नमक या नींबू मिलाकर सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसे मिश्रण से दूध के मौलिक तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह विषाक्त हो जाने से हानिकर हो जाता है, ठीक उसी प्रकार, साधना निरापद और लाभप्रद रहती है, जबकि नियम विरुद्ध साधना का परिणाम असफलताजनक और दुःखद होता है। इसलिए, नियमों की अनिवार्यता साधना के सभी क्षेत्रों में समान रुप-से स्वीकार की गई है।
तंत्र, अलौकिक शक्तियों से युक्त और सार्वभौमिक ज्ञान से सम्बद्ध, एक प्रकार की विद्या प्राप्ति की पद्धति हैं, जो महान ज्ञान का भंडार हैं। आदि काल से ही, समस्त हिन्दू शास्त्र, महान ज्ञान तथा दर्शन का भंडार रहा हैं तथा पांडुलिपि के रूप में लिपि-बद्ध हैं और स्वतंत्र ज्ञान के श्रोत हैं। बहुत से ग्रन्थ पाण्डुलिपि बद्ध प्रायः लुप्त हो चुके हैं या कहे तो उन की पांडुलिपि खराब हो गई हैं। बहुत से ऐसे ग्रन्थ विद्यमान हैं जिन कुछ ऐसे ग्रंथो का नाम प्राप्त होता हैं, जो आज लुप्त हो चुके हैं। तंत्र का सर्वप्रथम अर्थ ऋग्-वेद से प्राप्त होता हैं, जिसके अनुसार ये एक ऐसा करघा हैं जो ज्ञान को बढ़ता हैं। जिसके अंतर्गत, भिन्न भिन्न प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, बुद्धि तथा शक्ति दोनों को बढ़ाया जाता हैं। तंत्र के सिद्धांत, आध्यात्मिक साधनाओ, रीति-रिवाजो के पालन, भैषज्य विज्ञान, अलौकिक तथा परलौकिक शक्तिओ के प्राप्ति हेतु, काल जादू, इंद्र जाल, अपने विभिन्न कामनाओ के पूर्ति हेतु, योग द्वारा निरोग रहने, ब्रह्मत्व या मोक्ष प्राप्ति हेतु, वनस्पति विज्ञान, सौर्यमण्डल, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष विज्ञान, शारीरिक संरचना विज्ञान इत्यादि से सम्बद्ध हैं या कहे तो ये सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति का भंडार हैं। हिन्दू धर्मों के अनुसार हजारों तंत्र ग्रन्थ हैं, परन्तु काल के दुष्प्रभाव के परिणाम स्वरूप कुछ ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं। तंत्र का एक अंधकार युक्त भाग भी हैं, जिस के तहत हानि से संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन होता हैं। परन्तु ये संपूर्ण रूप से साधक के ऊपर ही निर्भर करता हैं की वो तंत्र पद्धति से प्राप्त ज्ञान का किस प्रकार से उपयोग करता हैं।
कामिका तंत्र के अनुसार, तंत्र शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं पहला ‘तन’ तथा दूसरा ‘त्र’। ‘तन’ शब्द, बड़े पैमाने पर प्रचुर मात्रा में, गहरे ज्ञान से तथा ‘त्र’ शब्द का अर्थ सत्य से हैं। अर्थात प्रचुर मात्र में वो ज्ञान, जिस का सम्बन्ध सत्य से है, वही तंत्र हैं। तंत्र संप्रदाय अनुसार वर्गीकृत हैं, भगवान विष्णु के अनुयायी जो वैष्णव कहलाते हैं, इनका सम्बन्ध ‘संहिताओं’ से हैं तथा शैव तथा शक्ति के अनुयायी, जिन्हें शैव या शक्ति संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं, इनका सम्बन्ध क्रमशः आगम तथा तंत्र से हैं। आगम तथा तंत्र शास्त्र, भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं तथा इनके गणो द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। ब्रह्मा जी से सम्बंधित तंत्रों को ‘वैखानख’ कहा जाता हैं।
तंत्रो के अंतर्गत चार प्रकार के विचारों या उपयोग को सम्मिलित किया गया हैं ।
१. ज्ञान, तंत्र ज्ञान के अपार भंडार हैं।
२. योग, अपने स्थूल शारीरिक संरचना को स्वस्थ रखने हेतु।
३. क्रिया, भिन्न भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाले देवी देवताओं से सम्बंधित पूजा विधान।
४. चर्या, व्रत तथा उत्सवों में किये जाने वाले कृत्यों का वर्णन।
इन के अलावा दार्शनिक दृष्टि से तंत्र तीन भागों में विभाजित हैं १. द्वैत २. अद्वैत तथा ३. द्वैताद्वैत।
वैचारिक मत से तंत्र शास्त्र चार भागों में विभक्त है।
१. आगम २. यामल ३. डामर ४. तंत्र।
प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माने जाते हैं, ये वो ग्रन्थ हैं जो शिव जी तथा पार्वती या सती के परस्पर वार्तालाप के कारण अस्तित्व में आये हैं तथा भगवान विष्णु द्वारा मान्यता प्रदान किये हुए हैं। भगवान शिव द्वारा बोला गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया ग्रन्थ आगम नाम से जाना जाता हैं इस के विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम ग्रन्थ के नाम से जाना जाता हैं। इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्हीं से इन ग्रंथो को मान्यता प्राप्त हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश को, गणेश द्वारा नंदी को तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथो का उपदेश दिया गया हैं।
आगम ग्रंथो के अनुसार शिव जी पंचवक्त्र हैं, अर्थात इन के पाँच मस्तक हैं, १. ईशान २. तत्पुरुष ३. सद्योजात ४. वामदेव ५. अघोर। शिव जी के प्रत्येक मस्तक, भिन्न भिन्न प्रकार के शक्तिओ के प्रतिक हैं; क्रमशः सिद्धि, आनंद, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया हैं।
भगवान शिव मुख्यतः तीन अवतारों में अपने आप को प्रकट करते हैं १. शिव २. रुद्र तथा ३. भैरव, इन्हीं के अनुसार वे ३ श्रेणिओ के आगमों को प्रस्तुत करते हैं १. शैवागम २. रुद्रागम ३. भैरवागम। प्रत्येक आगम की श्रेणी स्वरूप तथा गुण के अनुसार हैं।
शिवागम : भगवान शिव ने अपने ज्ञान को १० भागों में विभक्त कर दिया तथा उन से सम्बंधित १० अगम शिवागम नाम से जाने जाते हैं।
१. प्रणव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, कमिकागम नाम से जाना जाता है।
२. सुधा शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, योगजगाम नाम से जाना जाता है।
३. दीप्त शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, छन्त्यागम नाम से जाना जाता है।
४. कारण शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, करनागम नाम से जाना जाता है।
५. सुशिव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अजितागम नाम से जाना जाता है।
६. ईश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुदीप्तकागम नाम से जाना जाता है।
७. सूक्ष्म शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सूक्ष्मागम नाम से जाना जाता है।
८. काल शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सहस्त्रागम नाम से जाना जाता है।
९. धनेश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुप्रभेदागम नाम से जाना जाता है।
१०. अंशु शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अंशुमानागम नाम से जाना जाता है।
रुद्रागम : रुद्रागम १८ भागों में विभक्त हैं। १. विजय रुद्रागम २. निश्वाश रुद्रागम ३. परमेश्वर रुद्रागम ४. प्रोद्गीत रुद्रागम ५. मुखबिम्ब रुद्रागम ६. सिद्ध रुद्रागम ७. संतान रुद्रागम ८. नरसिंह रुद्रागम ९. चंद्रान्शु रुद्रागम १०. वीरभद्र रुद्रागम ११. स्वयंभू रुद्रागम १२. विरक्त रुद्रागम १३. कौरव्य रुद्रागम १४. मुकुट और मकुट रुद्रागम १५. किरण रुद्रागम १६. गणित रुद्रागम १७. आग्नेय रुद्रागम १८. वतुल रुद्रागम
भैरवागम : भैरवागम के रूप में, यह ६४ भागों में विभाजित किया गया है।
१. स्वच्छ २. चंद ३. कोर्च ४. उन्मत्त ५. असितांग ६. महोच्छुष्मा ७. कंकलिश ८.रुद्र ९. ब्रह्मा १०. विष्णु ११. शक्ति १२. रुद्र १३. आथवर्ण १४. रुरु १५. बेताल १६. स्वछंद १७. रक्ताख्या १८. लम्पटाख्या १९. लक्ष्मी २०. मत २१. छलिका २२. पिंगल २३. उत्फुलक २४. विश्वधा २५. भैरवी २६. पिचू तंत्र २७. समुद्भव २८. ब्राह्मी कला २९. विजया ३०. चन्द्रख्या ३१. मंगला ३२. सर्व मंगला ३३. मंत्र ३४. वर्न ३५. शक्ति ३६. कला ३७. बिन्दू ३८. नाता ३९. शक्ति ४०. चक्र ४१. भैरवी ४२. बीन ४३. बीन मणि ४४. सम्मोह ४५. डामर ४६. अर्थवक्रा ४७. कबंध ४८. शिरच्छेद ४९. अंधक ५०. रुरुभेद ५१. आज ५२. मल ५३. वर्न कंठ ५४. त्रिदंग ५५. ज्वालालिन ५६. मातृरोदन ५७. भैरवी ५८. चित्रिका ५९. हंसा ६०. कदम्बिका ६१. हरिलेखा ६२. चंद्रलेखा ६३. विद्युलेखा ६४. विधुन्मन।
तंत्र के शाक्त शाखा के अनुसार; ६४ तंत्र और ३२७ उप तंत्र, यमल, डामर और संहिताये हैं।
आगम ग्रंथो का सम्बन्ध वैष्णव संप्रदाय से भी हैं, वैष्णव आगम, दो भागों में विभक्त हैं प्रथम बैखानक तथा दूसरा पंचरात्र तथा संहिता। बैखानक एक ऋषि का नाम हैं और उसके नौ छात्र १. कश्यप २. अत्री ३. मरीचि ४. वशिष्ठ ५. अंगिरा ६. भृगु ७. पुलत्स्य ८. पुलह ९. क्रतु बैखानक आगम के प्रवर्तक थे। वैष्णवो कि पञ्च क्रियाओं के अनुसार पंचरात्र आगम रचे गए हैं। वैष्णव संप्रदाय द्वारा भगवान विष्णु से सम्बंधित नाना प्रकार की धार्मिक क्रियायों, कर्म जो पाँच रात्रि में पूर्ण होते हैं, का वर्णन वैष्णव आगम ग्रंथो में समाहित हैं। १. ब्रह्मा रात्र २. शिव रात्र ३. इंद्र रात्र ४. नाग रात्र ५. ऋषि रात्र, वैष्णव आगम के अंतर्गत आते हैं। सनत कुमार, नारद, मार्कण्डये, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अनिरुध, ईश्वर तथा भरद्वाज मुनि, वैष्णव आगमो के प्रवर्तक थे।
यमला या यामल : साधारणतः यमल का अभिप्राय संधि से हैं तथा शास्त्रों के अंतर्गत ये दो देवताओं के वार्तालाप पर आधारित हैं। जैसे, भैरव संग भैरवी, शिव संग ब्रह्मा, नारद संग महादेव इत्यादि के प्रश्न तथा उत्तर पर आधारित संवाद, यामल कहलाता हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शिव तथा शक्ति एक ही हैं, इनके एक दूसरे से प्रश्न करना तथा उत्तर देना भी यामलो की श्रेणी में आता हैं। वाराही तंत्र के अनुसार, १. श्रृष्टि २. ज्योतिष ३. नित्य कृत वर्णन ४. क्रम ५. सूत्र ६. वर्ण भेंद ७. जाती भेंद ८. युग धर्मों का यामलो में व्यापक विवेचन हुआ हैं। भैरवागम में व्याप्त भैरवाष्टक के अनुसार, यामल आठ हैं; ब्रह्मयामल, विष्णुयामल, शक्तियामल, रुद्रयामल, आर्थवर्णायामल, रुरुयामल, वेतल्यामाल तथा स्वछंदयामल।
यामिनी-विहितानी कर्माणि समाश्रीयन्ते तत् तन्त्रं नाम यामलम्।
इन संस्कृत पंक्तियो के अनुसार, वो साधनायें या वे क्रियाएं जो रात के अंधेरे में, गुप्त रूप से की जाती हैं उन्हें यामल कहा जाता हैं, जो अत्यंत डरावनी तथा विकट होती हैं। शिव और शक्ति से सम्बंधित समस्त रहस्य, गुप्त ज्ञान इन्हीं यामल तंत्रो के अंतर्गत प्रतिपादित होता हैं। मुख्य रूप से ६ यामल शास्त्र हैं १. ब्राह्म २. विष्णु ३. रुद्र ४. गणेश ५. रवि ६. आदित्य।
डामर : डामर ग्रन्थ, केवल भगवान शिव द्वारा ही प्रतिपादित हुऐ हैं। डामरो की संख्या ६ हैं, १. योग २. शिव ३. दुर्गा ४. सरस्वती ५. ब्रह्मा ६. गंधर्व।
तंत्र : तांत्रिक ग्रन्थ देवी पार्वती तथा शिव के वार्तालाप के परिणाम स्वरूप प्रतिपादित हुए हैं। पार्वती द्वारा कहा गया तथा शिव जी द्वारा सुना गया, निगम ग्रन्थ तथा शिव द्वारा बोला गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया, आगम ग्रंथो के श्रेणी में आता हैं। तथा इन सभी ग्रन्थ तंत्र, रहस्य, अर्णव इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। तंत्रो, मुख्यतः शिव तथा शक्ति से सम्बंधित हैं, इन्हीं से अधिकतर तंत्र ग्रंथो की उत्पत्ति हुई हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र ग्रंथो के अंतर्गत, विभिन्न साधनाओ, पूजा पथ का ही वर्णन हैं। तंत्र अपने अंदर समस्त प्रकार का ज्ञान समाहित किया हुए हैं, इसी कारण, ऋग्-वेद में तंत्र को ज्ञान का करघा कहा जाता हैं, जो बुनने पर बढ़ता ही जाता हैं।
तंत्र पद्धति में, शैव, शाक्त, वैष्णव, पाशुपत, गणापत्य, लकुलीश, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं तथा शैव तथा शाक्त तंत्र ही जन सामान्य में प्रचलित हैं। ये दोनों तंत्र मूल रूप से एक ही हैं केवल मात्र नाम ही भिन्न हैं, ज्ञान भाव शैव तंत्र का मुख्य उद्देश्य हैं वही क्रिया का वास्तविक निरूपण शाक्त तंत्रों में होता हैं। शैवागम या शैव तंत्र भेद, भेदाभेद तथा अभेद्वाद के स्वरूप में तीन भागों में विभक्त हैं। भेद-वादी शैवागम शैव सिद्धांत के नाम जन सामान्य में जाने जाते हैं, वीर-शैव को भेदाभेद नाम से तथा अभेद्वाद को शिवाद्वयवाद नाम से जाने जाते हैं। माना जाता हैं कि समस्त प्रकार के शिव सूत्रों का उद्भव स्थल, हिमालय कश्मीर में ही हुआ हैं।
मंत्र : देवता का विग्रह मंत्र के रूप में उपस्थित रहता हैं। देवताओं के तीन रूप होते हैं १. परा २. सूक्ष्म ३. स्थूल, सामान्यतः मनुष्य सर्वप्रथम स्थूल रूप की उपासना करते हैं तथा इसके सहारे वे सूक्ष्म रूप तक पहुँच जाते हैं। तंत्रों में अधिकतर कार्य मन्त्रों द्वारा ही होता हैं ।