श्री नीलकंठ महादेव का मंदिर उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में ऋषिकेश के स्वर्गाश्रम, राम झूला से 23 किलोमीटर दूर 1,675 मीटर की ऊंचाई पर मणिकूट पर्वत की घाटी में स्थित है । मणिकूट पर्वत की गोद में स्थित मधुमती (मणिभद्रा) व पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदियों के ईशानमुखी संगम स्थल पर स्थित नीलकंठ महादेव मन्दिर एक प्रसिद्ध धार्मिक केन्द्र है ।
भारतवर्ष में सभी धर्मों, में एक कथा है कि देवताओं और राक्षसों के मध्य में किसी कारणवश युद्ध चल रहा था तब शीर्ष देवताओं की सलाह पर उनके मध्य तय हुआ कि समुद्र मंथन किया जाय और मंथन से जो भी रत्न प्राप्त होंगे उन्हें समान रूप से आपस में बाँट दिया जायेगा. मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए. जिसमे एक ‘कालकूट’ नामक विष भी था . उस विष के ताप से चारों दिशाओं में व्याकुलता फैलने लगी, त्राहि-त्राहि मचने लगी. इस संकट के निवारण हेतु सभी सुर-असुर भगवान ब्रह्मा व विष्णु के पास गए. उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को कहा. सरल ह्रदय और भक्तों की पुकार पर शीघ्र ही द्रवित होने वाले शिव प्रकट हुए और समस्त प्राणियों के हित को ध्यान में रखते हुए हलाहल को अपने कंठ में धारण किया. यद्यपि भगवान शंकर ने योगबल से उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया किन्तु उसके प्रभाव से वे बेचैन हो उठे और विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया. तभी से भगवान शिव नीलकंठ कहे जाने लगे.
विष के प्रभाव को शांत करने के निमित्त भगवान शिव ऋषिकेश के पास गंगा तट के समीप स्थित मणिकूट पर्वत की घाटी में मणिभद्रा व चन्द्रभद्रा नदी के संगम पर स्थित बरगद की छांव तले पुर्णतः एकांत समाधिस्थ हो गए. (मणिकूट, विष्णुकूट तथा ब्रह्मकूट के मूल में स्थित मणिभद्रा व चन्द्रभद्रा नदियों का यह संगम अत्यंत शीतलता प्रदान करने वाला है .
यहाँ पर साठ हजार वर्ष पर्यन्त समाधिस्थ रहने के बाद विष का प्रभाव शांत होने पर भगवान शिव की समाधि टूटी . भगवान शिव जिस वटवृक्ष के मूल में समाधि लगाकर बैठे थे वे वहां पर स्वयंभू लिंग रूप में प्रकट हुए, यहां आप स्वयंभू शिवलिंग का अत्यंत निकटता से दर्शन कर सकते हैं । यह शिवलिंग देखने में जिव्हा के आकार जैसा है जिसके मूल में कंठ के नीचे की हंसुली स्पष्ट देखी जा सकती है (सम्पूर्ण शिवलिंग के दर्शन केवल प्रातः व सांय की अभिषेक पूजा व आरती के समय ही किये जा सकते हैं, अन्यथा कवच लगा होने के कारण मात्र शीर्ष भाग के ही दर्शन किये जा सकते हैं ).