श्रीविद्या की उत्पत्ति व विस्तार किस प्रकार से है ?

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गुप्तगायत्री का ही विस्तृत रूप होने के कारण श्रीविद्या भी अत्यन्त गहन व गुह्य विद्या है इसलिए इसको भी गुप्तगायत्री ही कहा गया है, इसके प्रत्येक बीज अक्षर मंत्र के रूप में अनंत गोपनीय रहस्य छुपे पड़े हैं जिसे हम शास्त्रार्थ, धर्मचर्चा अथवा विवेचना आदि से कदापि नहीं जान सकते हैं, इस परम गुह्य विद्या को मात्र गहन साधना के माध्यम से ही जान व प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा कदापि नहीं !!!

श्रीविद्या साधना दो प्रकार से की जाती है :-

प्रथम प्रकार से :- श्रीविद्या साधना करने के लिए गुप्तगायत्री विधान का अनुसरण किया जाता है, जिसकी दीक्षा को केवल शरीर को पुर्णतः साध चुका साधक ही ग्रहण कर सकता है ! किसी भी गुप्तगायत्री में दीक्षित व उसकी समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से गुप्तगायत्री दीक्षा ग्रहण कर समस्त साधना संपन्न करते हुए श्रीविद्या के किसी भी कुल की स्वतन्त्र साधना संपन्न की जाती है ! (वर्तमान समय में गुप्तगायत्री की दीक्षा प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि इसके वास्तविक उपासक “बाजार” में उपलब्ध नहीं हैं, इसके सभी उपासक केवल जम्मू, हिमांचल, उत्तराखण्ड आदि क्षेत्र के शीतल हिमालयी क्षेत्र में निवास करते हैं !)

द्वितीय प्रकार से :- श्रीविद्या साधना करने के लिए किसी भी सम्प्रदाय परम्परानुसार श्रीविद्या में पूर्णदीक्षित व श्रीविद्या की उस कुल की समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से उसी कुलानुसार “षोडशाक्षरी विद्या” दीक्षा ग्रहण कर उस कुल की समस्त साधना संपन्न की जाती है !

गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या का विस्तार :- गुप्तगायत्री ही शक्ति कुलों, श्रीविद्या व महाविद्याओं का साधक के भीतर इस प्रकार से विस्तार करती है, यथा :-
अन्नमय कोष —- त्रयाक्षरी विद्या
प्राणमय कोष —- षडाक्षरी विद्या में विस्तार
मनोमय कोष —- नवाक्षरी विद्या में विस्तार
विज्ञानमय कोष —- द्वादशाक्षरी विद्या में विस्तार
आनंदमय कोष —- पंचदशाक्षरी विद्या में विस्तार

(गुप्तगायत्री की दीक्षा के बाद साधना करते हुए साधक के अन्नमय कोष से प्राणमय कोष में प्रवेश व षडाक्षरी विद्या में विस्तार होने पर शरीर के अन्य कोषों में पंचदशाक्षरी के रूप में अपनी वृद्धि करते हुए साधक के आत्मतत्व को स्वयं में लीन कर लेने तक यह मूलविद्या अपना विस्तार स्वयं ही करती है, व इस मध्य गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है ! तथा षडाक्षरी विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि त्रयाक्षरी विद्या में दीक्षित होने के उपरान्त षडाक्षरी विद्या से पंचदशाक्षरी विद्या तक यह पराम्बा का अपना स्वयं का विस्तार होता है, जिसे वह साधक के अन्तः कोषों में स्वयं ही विस्तृत करती है !)

आनन्दमय कोष तक का विस्तार संपन्न होने पर यह मूलविद्या पन्द्रह स्पष्ट व एक अस्पष्ट धूमिल वर्ण से युक्त पन्द्रह शक्तियों के स्पष्ट समूह के रूप में भासित होती है, इसीलिए केवल इस अवस्था में यह परमविद्या पंचदशाक्षरी विद्या कहलाती है, ओर वह जो एक अस्पष्ट धूमिल वर्ण शेष रह जाता है वो ही पूर्ण सत्तात्मक वर्ण व शक्ति है जिसके बिना यह विद्या पूर्णविद्या नहीं है, उस धूमिल वर्ण के सोलहवें अक्षर को स्पष्ट कर पंचदशाक्षरी विद्या में जोड़ने पर ही यह विद्या “षोडशाक्षरी विद्या” “श्रीविद्या” कहलाती है ! षोडश अक्षरों से सम्पन्न “षोडशाक्षरी श्रीविद्या” को पूर्ण किये बिना इस साधना की कोई सार्थकता ही नहीं है !

पंचदशाक्षरी विद्या में विस्तार संपन्न होने के बाद यह मूलविद्या हादी, कादी, सादी ओर वादी परमविद्याओं के रूप में इन चार श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल ओर त्रिपुराकुल के रूप में समायोजित हो जाती है, ओर यह मूलविद्या पुनः प्रत्येक कुल में प्रत्येक पुरुषार्थ के अनुरूप अपने कर्तव्य धारण करते हुए चार चार महाविद्याओं अर्थात कुल सोलह महाविद्याओं व उनके सोलह भैरवों के रूप में पुनः उत्पन्न होकर अपना विस्तार करती है तथा इसी समय पर यह पंचदशाक्षरी मूलविद्या कुलानुसार एक पूर्ण सत्तात्मक विशिष्ट बीजाक्षर से युक्त होकर “षोडशाक्षरी विद्या” तथा चारों पुरुषार्थों को संपन्न करने में सक्षम कुलस्वामिनी की चार महाविद्या रूपी अवस्थाओं का समूह होने के कारण “श्रीविद्या” कहलाती है, और यहीं से इस मूलविद्या का “कुलानुसार श्रीविद्या दीक्षा” तथा “भोगानुसार महाविद्या दीक्षा” व साधना प्रकरण प्रारम्भ होता है !

श्रीविद्या साधना किसी एक शक्ति विशेष या महाविद्या की साधना नहीं है, श्रीविद्या साधना पराशक्ति की विशेष गुण धर्म व प्रभाव युक्त शक्तियों का एक समूह है जिसे कुल कहा जाता है, तथा प्रत्येक कुल में क्रमशः बालिका, तरुणी, प्रौढ़ा व वृद्धा स्वरूपा चार महाविद्याएं होती हैं जो कि क्रमशः धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों का अपने गुण, धर्म व स्वभाव वश निर्धारण करती हैं ! ओर यदि कोई जीव किसी एक शक्ति या महाविद्या की साधना को ही श्रीविद्या साधना मानता है तो सम्भवतः यह उसके जीवन की ऐसी त्रुटि हो सकती है जिसकी वह कभी भी प्रतिपूर्ति नहीं कर सकेगा !

षोडशी व त्रिपुरसुन्दरी महाविद्या की दीक्षा ले या देकर श्रीविद्या साधना के भ्रम में उन्मत्त विद्वानजन यहां पर यह भी ध्यान दें कि जिस प्रकार एक स्त्री एक ही समय पर बहन, पुत्री, पत्नी व माँ होने का धर्म निभा सकती है ठीक उसी प्रकार से ये महाविद्याएं भी एक ही समय पर पृथक पृथक व पात्रतानुसार प्रभाव प्रदान करने में सर्वसमर्थ हैं, क्योंकि महाविद्या साधना भौतिक पूर्ति की साधना होती है और श्रीविद्या साधना विशुद्ध आध्यात्मिक साधना होती है, तो एक जैसा फल कैसे मिलेगा ???

श्रीविद्या के चारों कुल व उन कुलों में पुरुषार्थों का निर्धारण करने वाली श्रीविद्या की महाविद्याओं के क्रम व स्थिति को इस प्रकार समझा जा सकता है, यथा :-

श्रीकुल_________कालीकुल__________ताराकुल__________त्रिपुराकुल
धर्म – बाल रूप – षोडशी____________काली_______तारा_____कामाक्षी
अर्थ – तरुण रूप – त्रिपुरसुन्दरी_______???________???_____???
काम – प्रौढ़ा रूप – राजराजेश्वरी_______???_______???______???
मोक्ष – वृद्धा रूप – ललिताम्बा________???_______???______???

(गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या में प्रवेश अथवा सीधे श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध करती है, इस मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है ! तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ तृतीय पुरुषार्थ काम की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ वह मोक्ष की स्वामिनी अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है ! इसका प्रथम चरण पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों में गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा स्वयं ही संपन्न करती है !)

इन सभी चारों कुल आदि में कुलसाधना (पूर्णाभिषेक दीक्षा) हेतु कुलानुसार एक पूर्ण सत्तात्मक विशिष्ट बीजयुक्त एक ही षोडशाक्षरी मन्त्र होता है, जिसके वर्णों के क्रम में कुलानुसार भेद होता है ! जबकि क्रमदीक्षा व भोग साधना (महाविद्या साधना) में प्रत्येक महाविद्या का अपना पृथक पृथक मन्त्र होता है ! श्रीविद्या के इन चार कुलों में अपने साधक को श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म में स्थित करके अग्रिम दीक्षा से संपन्न कर अर्थार्जन हेतु अग्रसारित करने वाली बालस्वरुपा – षोडशी, काली, तारा ओर कामाक्षी होती हैं, और श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म, अर्थ व काम की साधना संपन्न कर चुके अपने साधक को अन्त में मोक्ष प्रदान करके स्वयं में समाहित करने वाली वृद्धास्वरुपा – ललिताम्बा, धूमावती, भुवनेश्वरी ओर त्रिपुरा होती हैं !

इन चार कुलों में षोडशी, तारा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, मातंगी, ललिताम्बा, भुवनेश्वरी, राजराजेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, कामाक्षी, आनंदभैरवी, धूमावती, उन्मत्त्भैरवी और त्रिपुरा आदि सोलह महाविद्याएँ हैं ! इसके उपरान्त यह सोलह महाविद्याएँ अपनी आठ आठ नायिकाओं को उत्पन्न करती हैं जो कि इनके कुल की देवियाँ कहलाती हैं जैसे :- तारा की- नीलतारा, उग्रतारा आदि, व काली की- दक्षिण काली, जयंती काली आदि, ओर चार चार योगिनियों को उत्पन्न करती हैं, जो कि चौंसठ योगिनी कहलाती हैं !

गुप्तगायत्री, कुलसाधना (पूर्णाभिषेक दीक्षा), क्रमदीक्षा व भोग साधना (महाविद्या दीक्षा) तक के विधान को “श्रीविद्या साधना” ही माना जाता है ! तथा इसकी दीक्षा व साधना या तो गुप्तगायत्री मूलविद्या में हो सकती है (जो कि वर्तमान में दुर्लभ है) अथवा श्रीविद्या कुलानुसार बीजाक्षर से युक्त “षोडशाक्षरी श्रीविद्या” के रूप में हो सकती है, अन्यथा षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि यह पराम्बा का त्रयाक्षरी विद्या से अपना स्वयं का विस्तार है जिसे वह स्वयं ही पूर्ण करती है, इसलिए षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा तो पराम्बा स्वयं भी नहीं दे सकती हैं, फिर हम जैसे अन्नपौषित जीवों की ऐसा करने की क्षमता कैसे हो सकती है ???

किन्तु फिर भी इस पढ़े लिखे अनपढ़ व शास्त्र ज्ञान से हीन समाज के मध्य में “इंटरनेट और पुस्तकों से दीक्षा प्राप्त कर स्वयंसिद्ध हुए” असंख्य अन्नपौषित जीव “श्रीविद्या” के नाम पर पंचदशाक्षरी मन्त्र की ही दीक्षा दे दे कर गुरु बनने की होड़ में जुटे पड़े हैं !

(उपरोक्त में एक कुल श्रीकुल व दो अवस्थाओं की स्थिति को यहाँ स्पष्ट लिख दिया गया है, शेष तीन कुल व दो अवस्थाओं को यहाँ स्पष्ट करना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि जो अन्य कुल व अवस्था के ज्ञाता हैं उनको तो ज्ञात ही है, और जिनको ज्ञात नहीं है वह कृपया अपने गुरुदेव से यह ज्ञान प्राप्त करें, अन्यथा यहाँ पढ़ पढ़ कर सभी श्रीविद्या के प्रवक्ता और रैकी हीलर बन जायेंगे और यह परमगूढ़ विद्या रैकी और मनोरंजन का केंद्र बनकर रह जाएगी !)

(यह लेख श्री नीलकंठ गिरी जी महाराज द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश है जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है, अतः कोई भी संस्था, संस्थान, प्रकाशक, लेखक या व्यक्ति इस लेख का कोई भी अंश अपने नाम से छापने या प्रचारित करने से पूर्व इस लेख में छुपा लिए गए अनेक तथ्यों के लिए शास्त्रार्थ व संवैधानिक कार्यवाही के लिए तैयार रहना सुनिश्चित करें !)