कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। सम्मोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महाविद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना। दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानन्द नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परन्तु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।
त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी-किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषद में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षर वाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।
मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है ‘त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र’। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्तरचतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण है। यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिस पर शंकराचार्य की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।
इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्तिसूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृत कल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्नसूत्र प्रसिद्ध है। इस पर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुरसूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदुसूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौलसूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चार्य ने सौंदर्यलहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललितासहस्रनाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।
श्रीविद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।
तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।
भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। ‘नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।’
ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है जो सुंदरी से भिन्न है (उसमें प्रपंच नहीं है)। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई-कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है ।